Friday, January 8, 2010

जागो मेरे देशवासियों जागो ...!!

मै सबको खुश करने यहाँ नही आया ,
ना रामायण वेद सुनाने को आया ।
कैसे चोट दिखा दूँ मै अपने तन की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।


१- खून बह रहा भारत माँ के बेटों का ,
मरहम नहीं है दिल्ली की उन चोटों का ।
कौन हैं वो ? जो देश का रक्त बहाते हैं ,
कौन हैं ? जो बालक अनाथ कर जाते हैं ।
कौन हैं वो ? माँ की गोदें सूनी करते ,
कौन हैं वो ? जो कोई दया नहीं रखते ।
इंसानो का खून बहाते जेहादी ,
कौन सा मज़हब देता है ये आज़ादी ।
सहमी आँखें रोती हैं पीड़ित - जन की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।


२- क्यों सब ऐसे हाथ पे हाथ धरे बैठे ,
क्यो सब ऐसे वार्ताओं में हैं बैठे ।
देश के नेता भाषण के खाते गोते ,
काश के मरने वालों में वो ख़ुद होते ।
तब उनको वो दर्द समझ में आ जाता ,
फिर कोई कानून बनाया ही जाता ।
ये हैं जिम्मेदार खून की होली के,
यही लुटेरे हर दुल्हन की डोली के ।
भीख मांगती धरती आज समर्पण की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।


३- ऐसे जीने से मै मौत सराहूँगा ,
अपने जैसे ही दस-बीस बनाऊंगा ।
वतन की खातिर जो मिटटी में मिल जाएँ ,
मानव- बम बनकर संसद में फट जाएँ ।
जब दिल्ली के नेता सब मर जायेंगे ,
सच मानो हम तब ही खुश रह पायेंगे ।
और इस खातिर देनी होगी कुर्बानी ,
“मै भी हूँ तैयार” आवाजें है आनी ।
सिखलानी परिभाषा दीवानेपन की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।


——श्रेय तिवारी , मुंबई

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