प्यारे दोस्तों ,
मै जब मुंबई आया था , तो कुछ दिनों तक मुझे संघर्ष करना पड़ा था । उस समय मैंने ये कविता लिखी थी । इस कविता को मैंने बहुत सोच समझ के लिखा था । आप इसको जब पढ़े तो ध्यान पूर्वक पढ़े , और कहीं भी ऐसा लगता हो की मैंने पूरी कविता में कुछ जान डाली है तो आप अपने हाथ बंधे हुए ना रखे । झट से कीबोर्ड पर आप अपनी उंगलियाँ चला कर कमेंट्स करें ।
मै वहीं जीता हूँ जीवन , जहाँ कहीं संघर्ष होता ।
सोचता रहता हमेशा क्या यही निष्कर्ष होता ।
हम बहुत पढ़ - लिख लिए अब ऑफिसों में झांकते ,
रिक्त स्थानों में भरती के लिए है भागते ।
पर जुगाड़ों के बिना है नौकरी मिलती कहाँ ,
जो दे रहा अधिकारीयों को नोट की गड्डी जहाँ ।
बस उसी की नौकरी है और उसी की जीत है ,
जाहिल ,जुगाडू भर रखे कार्यालयों की रीत है ।
पर कभी मै सोचता हूँ , मुझमे क्या प्रतिभा भरी ,
मेरे जैसों की करोड़ों में यहाँ लाइन खड़ी ।
युग है स्पर्धा का मुझसे सैकड़ों अच्छे पड़े है ,
साम , दाम और दंड से सब रोजगारी को खड़े है ।
जब हो आबादी अरब तो क्या करोड़ों रिक्तियां हैं ,
और भीड़ में से जो अलग है बस उन्ही को न्युक्तियाँ हैं ।
जाहिल ,जुगाडू, रिश्वतों के बस बहाने मात्र हैं ,
और जो नहीं सामान्य वो ही नौकरी के पात्र हैं ।
है नहीं बेरोज़गारी मेरे भारत देश में ,
एक से बढ़कर एक हैं कुछ पाने के आवेश में ।
घर से बाहर ज्ञात होता मै कहाँ पर हूँ खड़ा ,
(अपने ग्रह नगर में रहते हुए , माँ बाप के सहारे के साथ रहते हुए लगता है कि हम ही सब कुछ हैं , लेकिन जब अपने ग्रह नगर से बाहर आते है , संघर्ष करते हैं और जूझते है तब पता चलता है कि हम तो कुछ भी नही । हम से कितने स्मार्ट और बुद्धिमान लोग इस दुनियां में पड़े है )
घर से बाहर ज्ञात होता मै कहाँ पर हूँ खड़ा ,
मै तो कोयला मात्र , बाहर सोना है बिखरा पड़ा ।
पर नहीं मै हारता हूँ , क्योंकि मेरे ख्वाब हैं ,
चल रहा हूँ मै निरंतर सामने सैलाब हैं ।
है बड़ा विश्वास मुझको पाऊंगा मंजिल यहाँ मै ,
कुछ असंभव है नही , पुरुषार्थ हो तो इस जहाँ मै ।
जो रखें प्रभु पर भरोसा हो स्वयं परमार्थी ,
चल पड़ेगा रथ हमारा , प्रभु बनेंगे सारथी ।
इसलिए मेरा परिश्रम एक दिन रंग लाएगा ,
चाहता हूँ ख्वाब में वो सामने आ जाएगा ।
---श्रेय तिवारी , मुंबई
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