सफलता सभी को अभीष्ट है । उसे प्राप्त करने पर प्रसन्नता होती है । असफलता कोई नही चाहता , यदि वह किसी प्रकार पल्ले बंध जाए , तो दुःख और पश्चात्ताप ही प्रदान करती है । इतना होते हुए भी लोगो में एक बुरी किस्म की भ्रान्ति यह पाई जाती है कि अपने को असहाय, परावलम्बी मानते रहते है और असफलता का दोष और सफलता का श्रेय दूसरों को देते रहते हैं । अपनी ओर नहीं निहारते और यह नही सोचते कि अपने गुण - दोषों कि तरफ़ देखें । यह नहीं विचारते कि अपनी त्रुटियां , दुर्बलताएं और भूलें ही असफलताओं के लिए प्रधानतया जिम्मेदार होती है और जो सफल होते हैं, उनमे उनके गुण, स्वभाव, मान्यताओं एवं धारणाओं का भी बड़ा हाथ होता है ।
मनुष्य की संरचना इस स्तर की है कि यदि वह श्रेष्ठ, स्वाबलंबी एवं सद्गुणी बनकर रहे तो असफलताओं से कदाचित ही पाला पड़े । और यदि कोई विपन्नता आकस्मिक रूप से आ भी जाए, तो ज्यादा देर तक टिकने न पाए । उसका समाधान किसी ना किसी प्रकार निकल ही आए ।
असफलताएं लगातार मिलने , प्रगति की दिशा में कदम न बढ़ पाने और अवगति के देर तक बने रहने का एक ही कारण है - अपने गुण , कर्म और स्वभाव में त्रुटियों का बाहुल्य होना, व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिष्कृत , परिपक्व न होना । भगवान ने मनुष्य को इतनी विशेषताओं और विभूतियों से सम्पन्न बनाया है कि वह साधारण स्थिति में न पड़ा रहकर क्रमशः उन्नति कि दिशा में निरंतर आगे बढ़ सकता है और इतना ऊँचा उठ सकता है जितना कि उसका स्रजेता । क्रमबध्द रोप्प से अनवरत चलने वाली चींटी भी इतने ऊँचे पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है कि ये विश्वास करना कठिन होता है कि इतना छोटा प्राणी , इतने नन्हे से पैरों के सहारे इतनी ऊंचाई तक किस प्रकार ऊँचा उठ सकता है । किंतु यदि पवन कि गति से चलने वाला गरुण भी आलस्य , प्रमाद से अपने पुरुषार्थ को तिलांजलि दे तो वह आजीवन जहाँ का तहां ही बैठा रहेगा ।
व्यक्ति का अपना मनोबल ही उसे अग्रगामी बनाने में प्रधान रूप से शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करता रहा है। गुत्थियों के समाधान में उसी के द्वारा उत्पन्न सूझ बूझ ने सहायता दी है और कठिनाइयों के सरोवर से उतारकर पार किया है । इसमे किसी दैवीय सहायता को अथवा व्यक्ति विशेष को श्रेय देने में यही लाभ है कि अपना अंहकार नहीं बढ़ पाता, नम्रता बनी रहती है और आस्तिकता की भावना पनपती है कि मेरे प्रभु की कृपा से मुझे इतना कुछ मिल चुका है और इससे अधिक की इच्छा अपंग होने के समान है ।
वस्तुतः ईश्वर विश्वास का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है , जिसमे जितना आत्मविश्वास सघन हो , समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा ईश्वर विश्वासी है । जो अपने को दीन-हीन , अपंग, असमर्थ अनुभव करता है , वह उतने ही स्तर का नास्तिक है । आत्मशक्ति की गरिमा को भूल जाने और उसका प्रयोग करने में गडबडाने , लड़खडाने में ही व्यक्ति दीन -हीन बनकर रह जाता है और पग -पग पर असफलताएं प्राप्त करता है ।
सिफलिस रोग की औषधि खोजने वाले प्रसिद्ध विज्ञानी डॉक्टर अर्लिक ने अपनी दवा का नाम रखा '६०६'। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने ६०५ बार बुरी तरह असफल रहने के बाद ६०६ वी बार सफलता पायी थी । इस विलक्षण नाम के पीछे उद्देश्य मात्र इतना था कि लोग यह जान सकें कि असफलता ही सफलता की जननी है । असफलता से निराश नहीं होना चाहिए ।
अपनी सामर्थ्य को भूल जाना अथवा उसका प्रयोग सही रीति से , सही समय पर न बन पड़ना ही वह दुर्भाग्य है , जिसे असफलताओं का जनक कहा जा सकता है , दुसरे लोग भी अड़चन उत्पन्न कर सकते है , परिस्थितियां भी प्रतिकूल हो सकती हैं । इतने पर भी मनुष्य के पुरुषार्थ की धार इतनी कुंठित नही हो जाती , कि उन अगणित अवरोधों को निरस्त ना कर सके , अंधेरे में नए प्रकाश की किरण का उदय ना कर सके ।
----श्रेय तिवारी , मुंबई
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