Sunday, December 6, 2009

ये खतरनाक बीबियाँ ...!!

करीब दस साल पहले मैंने ये गाना लिखा था , जब मै कॉलेज में पढ़ा करता था । तब मैंने किसी और गीत से प्रेरित होकर ये गीत नही लिखा था । हालांकि फ़िल्म थानेदार में कुछ ऐसा ही मिलता जुलता गाना आ चुका है , पर मेरे गाने का लय - ताल उस गाने से बिल्कुल अलग है । आज वो गाना मै आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ ।


कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,
कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

ख़ुद पड़ी बेड पर मुझसे झाडू लगवाती है ,
डंडा ले पीछे बैठी , बर्तन मंज्वाती है ।
किससे दुःख बांटू अपना आँखों में आंसू हैं,
मेरा दुःख मेरी बीबी और मेरी सासू है ।

जिसको मुझसे हमदर्दी है , वो मेरी है साली ,
कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,
कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

किस चक्की का खाती है , कुछ काम करे ना काज ,
मेरे राम समझ नहीं पाया उसकी सेहत का राज ।
सब खून पी गई मेरा , मै कीकड़ सा दीखता हूँ ,
वो हाथ प्यार से फेरे मै चक्कर खा गिरता हूँ ।

जब गुस्से में वो आए , दिखती है माँ काली ,
कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,
कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

किस जेल में आ बैठा हूँ , बाहर हरियाली है ,
एक दाल खा बोर हुआ हूँ , मन में बिरयानी है ।
हर रोज जायका मेरा फीका सा होता है ,
नमकीन रोज़ चखने को मन मेरा रोता है ।

वो फूल बंद गोभी सा मै हूँ उसका माली ,
कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,

कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई

Thursday, December 3, 2009

जिंदगी एक संघर्ष ...!!

प्यारे दोस्तों ,

मै जब मुंबई आया था , तो कुछ दिनों तक मुझे संघर्ष करना पड़ा था । उस समय मैंने ये कविता लिखी थी । इस कविता को मैंने बहुत सोच समझ के लिखा था । आप इसको जब पढ़े तो ध्यान पूर्वक पढ़े , और कहीं भी ऐसा लगता हो की मैंने पूरी कविता में कुछ जान डाली है तो आप अपने हाथ बंधे हुए ना रखे । झट से कीबोर्ड पर आप अपनी उंगलियाँ चला कर कमेंट्स करें ।

मै वहीं जीता हूँ जीवन , जहाँ कहीं संघर्ष होता ।
सोचता रहता हमेशा क्या यही निष्कर्ष होता ।
हम बहुत पढ़ - लिख लिए अब ऑफिसों में झांकते ,
रिक्त स्थानों में भरती के लिए है भागते ।
पर जुगाड़ों के बिना है नौकरी मिलती कहाँ ,
जो दे रहा अधिकारीयों को नोट की गड्डी जहाँ ।
बस उसी की नौकरी है और उसी की जीत है ,
जाहिल ,जुगाडू भर रखे कार्यालयों की रीत है ।

पर कभी मै सोचता हूँ , मुझमे क्या प्रतिभा भरी ,
मेरे जैसों की करोड़ों में यहाँ लाइन खड़ी ।
युग है स्पर्धा का मुझसे सैकड़ों अच्छे पड़े है ,
साम , दाम और दंड से सब रोजगारी को खड़े है ।
जब हो आबादी अरब तो क्या करोड़ों रिक्तियां हैं ,
और भीड़ में से जो अलग है बस उन्ही को न्युक्तियाँ हैं ।

जाहिल ,जुगाडू, रिश्वतों के बस बहाने मात्र हैं ,
और जो नहीं सामान्य वो ही नौकरी के पात्र हैं ।
है नहीं बेरोज़गारी मेरे भारत देश में ,
एक से बढ़कर एक हैं कुछ पाने के आवेश में ।
घर से बाहर ज्ञात होता मै कहाँ पर हूँ खड़ा ,

(अपने ग्रह नगर में रहते हुए , माँ बाप के सहारे के साथ रहते हुए लगता है कि हम ही सब कुछ हैं , लेकिन जब अपने ग्रह नगर से बाहर आते है , संघर्ष करते हैं और जूझते है तब पता चलता है कि हम तो कुछ भी नही । हम से कितने स्मार्ट और बुद्धिमान लोग इस दुनियां में पड़े है )

घर से बाहर ज्ञात होता मै कहाँ पर हूँ खड़ा ,
मै तो कोयला मात्र , बाहर सोना है बिखरा पड़ा ।
पर नहीं मै हारता हूँ , क्योंकि मेरे ख्वाब हैं ,
चल रहा हूँ मै निरंतर सामने सैलाब हैं ।
है बड़ा विश्वास मुझको पाऊंगा मंजिल यहाँ मै ,
कुछ असंभव है नही , पुरुषार्थ हो तो इस जहाँ मै ।
जो रखें प्रभु पर भरोसा हो स्वयं परमार्थी ,
चल पड़ेगा रथ हमारा , प्रभु बनेंगे सारथी ।
इसलिए मेरा परिश्रम एक दिन रंग लाएगा ,
चाहता हूँ ख्वाब में वो सामने आ जाएगा ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई

Sunday, November 22, 2009

लव लैटर के रंग ...!!

टूटे हुए प्यालों में जाम नही आता ,
इश्क के मरीज़ को आराम नही आता ।
दिल तोड़ने वाले ये क्यों नही समझते ,
कि टूटा हुआ दिल किसी के काम नही आता ।

आज मै अपना एक गीत (जो एक फ़िल्म के लिए लिखा था ) आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ । आशा करता हूँ कि आप सब लोगों को पसंद आएगा । हम सब उस उम्र से होकर गुज़रे है , जब लव - लैटर लिखे या लिखवाए जाते थे और उन्हें लड़की के घर में अन्दर फेंकने कि कोशिश की जाती थी । वो लैटर यदि लड़की के हाथ पड़ गया तो आपकी किस्मत आपका साथ दे गई , अन्यथा किसी और को मिला तो क्या हो सकता है ....... वो आप इस गीत में पढ़िए ।

अब कल क्या होने वाला है , लव लैटर उसको डाला है ।
ससुरा तो ढीला ढाला है , पर साला मोटा - ताज़ा है ।

लैटर पायेगी सासू , आंखों में होंगे आंसू ।

लैटर पायेगा ससुरा , टेंशन में बेड पे पसरा ।

लैटर पायेगी साली , मुख पर होगी हरियाली ,

लैटर पायेगा भाई , जल भुन चिंघाड़ लगाई

तोड़ - फोड़ रख दूंगा उसको कौन सा हिम्मत वाला है ,

अब कल क्या होने वाला है , लव लैटर उसको डाला है ।
ससुरा तो ढीला ढाला है , पर साला मोटा - ताज़ा है ।

वो घर से जब निकलेगी , एक गार्ड साथ में आए ।

चाहे वो उसका भाई चाहे मम्मी ही चली आए ।

मै कैसे बोलूं उसको मै भी तेरा दीवाना ,

मेरा कुछ हाल समझ ले मिलने नुक्कड़ पे आना ।

पागल सा कर गई वो मुझको कैसा जादू डाला है ,

अब कल क्या होने वाला है , लव लैटर उसको डाला है ।
ससुरा तो ढीला ढाला है , पर साला मोटा - ताज़ा है ।

तू मुझको चाहे जानी , क्यों भाई से डरती है ,

इतना डर इतना पहरा क्यों भाई से करती है ।

साले जी तुमने तो भी कभी प्यार किया तो होगा ,

और उस प्यार में तुमने लैटर भी लिखा होगा ।

फिर गैंडे तू मेरे प्यार में करता गड़बड़ झाला है ....

अब कल क्या होने वाला है , लव लैटर उसको डाला है ।
ससुरा तो ढीला ढाला है , पर साला मोटा - ताज़ा है ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Wednesday, November 18, 2009

भारत का भविष्य ...!!

भोर हुआ सूरज भी सर पर चढ़ आया
चैत्र महीने की तपती गरमी लाया ।
गिरती थी माथे से बूंद पसीने की ,
पर उसको ज्यादा थी परवाह जीने की ।


गर्म हवाएं चलती तन ना थकता हो ,

पीकर पानी चेहरा जहाँ चमकता हो ।

सौ में से पचपन (५५%) में ऐसा होता है ,

जिनके घर में नन्हा बचपन रोता है ।


भूख बुझी हो जिनकी केवल पानी से ,

रात कटी हो सुनते एक कहानी से ।

रात का सपना सुबह की रोटी जिसका हो ,

बिन बोले आंखों से दर्द टपकता हो ।


ज़िम्मेदारी से झुकते जिनके कंधे ,

मेहनत करते, करते नही ग़लत धंधे ।

रोटी एक मिली तो आधी वो खाए ,

गमझे में बांधे आधी वो घर लाये ।


रोटी ही जिनके भविष्य की पूंजी हो ,

सुबह शाम बस रोटी की ही सूझी हो ।

आधा पेट भरा सोये खर्राटों में ,

संतुष्टि दिखती हो उनकी बातों में ।


बाप बेचारा लगता हो असहाय दुखी ,
माँ जिसकी बीमारी से हो बुझी - बुझी ।
स्तन से जिसके न दुग्ध निकलता हो ,
गोद में लेटा बच्चा पड़ा बिलखता हो ।


क्या ये ही भारत के उज्जवल सपने हैं ,

मुंह मत फेरो इनसे ये सब अपने हैं ।

कैसी है मायूसी चेहरों पे देखो ,

अपने बच्चों की सूरत इनमें देखो ।


आओ हम सब मिलकर एक कसम खाएं ,

इन नन्हों को मुफ्त में शिक्षा दे पायें ।

शिक्षा से ही इनका जीवन सुधरेगा ,

और इनसे भारत का चेहरा बदलेगा ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई
Mobile: +919867590757

Sunday, November 15, 2009

मेरे पत्थर दिल सनम ...!!

प्यारे दोस्तों ,

बहुत दिनों बाद, मेरे कुछ मित्रों के आग्रह पर मै आज मेरी एक नई रचना (गीत) प्रस्तुत कर रहा हूँ । आशा करता हूँ कि आप इस रचना को पढ़कर मुझे अपनी टिप्पणिया ज़रूर भेजेंगे । वैसे गीत को पढने के बजाय सुनने में आनंद आता है ।

मैंने पत्थर को पूजा कि "पूजा " मिले ,

हसरतें मर गयीं पर न पूजा मिली ।

एक नफस कि तरह क्यों था देखा मुझे,

मेरा सेहरा सा जीवन था खिल सा गया ।

मै तो अपने कफस से क्यों बहार हुआ ,

दिल ज़खीरा - ऐ - ग़म हो गया दिलनशीं ।

मैंने पत्थर को पूजा कि "पूजा " मिले ,
हसरतें मर गयीं पर न पूजा मिली ।

मै वो परवाज़ था जो सदा कर रहा ,

ऐ खुदा वक्ते - रुखसत मिले न कभी ।

देख तुझको करूँगा मै दीदा -ऐ - तर ,

अपनी देहलीज़ से तू लगे महज़बीं ।

मैंने पत्थर को पूजा कि "पूजा " मिले ,
हसरतें मर गयीं पर न पूजा मिली ।

दरे- आमद पे तेरी यूँ राहें तकीं ,

जब सनमखाने से नज़रें मुझपे पड़ीं ।

क्या अदावत थी मुझसे बता दो तुम्हीं ,

वो निगाहें करम भी न मुझको मिलीं ।

मैंने पत्थर को पूजा कि "पूजा " मिले ,
हसरतें मर गयीं पर न पूजा मिली ।

क्यों खुदा मुझसे रूठा है मेरा हबीब ,

मातमे - ज़िन्दगी है मेरी जिंदगी ।

दर्द - ऐ - दिल क्यों बता तूने इतने दिए ,

इन ग़मों को छिपाकर बना मै कवि ।

मैंने पत्थर को पूजा कि "पूजा " मिले ,
हसरतें मर गयीं पर न पूजा मिली ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई

Tuesday, June 23, 2009

भजन ..!!

गोविन्द हरे गोपाल ....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

मै तो आन पड़ा तेरे द्वार ....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

१- तेरी माया मै नहीं जाना.....

तुझको मै नहीं पहचाना ।

जब दुःख ने मुझको घेरा.......

मैंने नाम ही तेरा कोसा ।

मेरा जीवन तू दे संवार .....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

२- दुःख - सुख जीवन की छाया ...

मुझको न समझ ये आया ।

मैंने लोभ से सुमिरा तुझको .....

निस्वार्थ ना ध्यान लगाया ।

तुझे मुझसे है फिर भी प्यार .....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

गोविन्द हरे गोपाल ....मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Sunday, June 21, 2009

बरसात का मौसम ...!!

प्यारे दोस्तों ,

आज मै आपके सामने अपना लिखा हुआ एक गाना प्रस्तुत कर रहा हूँ । जिसे मैंने एक फिल्म के लिए लिखा था , दुर्भाग्यवश वो फ़िल्म रिलीज़ ही नही हो पायी । मुंबई में अभी बारिश शुरू हुई है, ये गीत इस मौसम के लिए उपयुक्त और सटीक रहेगा ।

आई ऋतु मस्तानी रे , काली घटा छाई रे ,

रिमझिम बूंदों में भीगे तन मस्ती सी आई रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

१- पीहू पीहू पपीहा चिल्लाये प्यास बुझी है उनकी ,

कीट पतंगे नाच उठे , मेंढक टर्राये सनकी ।

पूरी हो गयी आशाएं जैसे इन सबके मन की ,

इस मौसम में याद सताई हमको भी बस उनकी ।

गोरे गोरे गाल पे जिनके जुल्फें लहरायीं रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

२- छतरी लेकर निकल पड़े सब बाजारों की ओर,

इधर भी पानी , उधर भी पानी यही मचा है शोर ।

वो आई बिन छतरी के तो नाचा मन में मोर ,

बोला आजा छतरी में , बारिश पकडेगी ज़ोर ।

यारो बारिश हुई तेज़ पर वो नहीं आई रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

३- भीग गए कपड़े उसके और चिपक गए थे तन से,

उनको ढीला करती थी वो कुछ शर्माते मन से ।

फिर भी अपना काम किए जाती थी बड़ी लगन से ,

मुझको कर गयी दीवाना वो पूरे तन -मन- धन से ।

भीगी जुल्फों को संवारती लगती थी प्यारी रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

आई ऋतु मस्तानी रे , काली घटा छाई रे ,
रिमझिम बूंदों में भीगे तन मस्ती सी आई रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Monday, June 8, 2009

सफलता की कुंजी -- आशावादी मन स्थिति .

सफलता सभी को अभीष्ट है । उसे प्राप्त करने पर प्रसन्नता होती है । असफलता कोई नही चाहता , यदि वह किसी प्रकार पल्ले बंध जाए , तो दुःख और पश्चात्ताप ही प्रदान करती है । इतना होते हुए भी लोगो में एक बुरी किस्म की भ्रान्ति यह पाई जाती है कि अपने को असहाय, परावलम्बी मानते रहते है और असफलता का दोष और सफलता का श्रेय दूसरों को देते रहते हैं । अपनी ओर नहीं निहारते और यह नही सोचते कि अपने गुण - दोषों कि तरफ़ देखें । यह नहीं विचारते कि अपनी त्रुटियां , दुर्बलताएं और भूलें ही असफलताओं के लिए प्रधानतया जिम्मेदार होती है और जो सफल होते हैं, उनमे उनके गुण, स्वभाव, मान्यताओं एवं धारणाओं का भी बड़ा हाथ होता है ।
मनुष्य की संरचना इस स्तर की है कि यदि वह श्रेष्ठ, स्वाबलंबी एवं सद्गुणी बनकर रहे तो असफलताओं से कदाचित ही पाला पड़े । और यदि कोई विपन्नता आकस्मिक रूप से आ भी जाए, तो ज्यादा देर तक टिकने न पाए । उसका समाधान किसी ना किसी प्रकार निकल ही आए ।
असफलताएं लगातार मिलने , प्रगति की दिशा में कदम न बढ़ पाने और अवगति के देर तक बने रहने का एक ही कारण है - अपने गुण , कर्म और स्वभाव में त्रुटियों का बाहुल्य होना, व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिष्कृत , परिपक्व न होना । भगवान ने मनुष्य को इतनी विशेषताओं और विभूतियों से सम्पन्न बनाया है कि वह साधारण स्थिति में न पड़ा रहकर क्रमशः उन्नति कि दिशा में निरंतर आगे बढ़ सकता है और इतना ऊँचा उठ सकता है जितना कि उसका स्रजेता । क्रमबध्द रोप्प से अनवरत चलने वाली चींटी भी इतने ऊँचे पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है कि ये विश्वास करना कठिन होता है कि इतना छोटा प्राणी , इतने नन्हे से पैरों के सहारे इतनी ऊंचाई तक किस प्रकार ऊँचा उठ सकता है । किंतु यदि पवन कि गति से चलने वाला गरुण भी आलस्य , प्रमाद से अपने पुरुषार्थ को तिलांजलि दे तो वह आजीवन जहाँ का तहां ही बैठा रहेगा ।
व्यक्ति का अपना मनोबल ही उसे अग्रगामी बनाने में प्रधान रूप से शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करता रहा है। गुत्थियों के समाधान में उसी के द्वारा उत्पन्न सूझ बूझ ने सहायता दी है और कठिनाइयों के सरोवर से उतारकर पार किया है । इसमे किसी दैवीय सहायता को अथवा व्यक्ति विशेष को श्रेय देने में यही लाभ है कि अपना अंहकार नहीं बढ़ पाता, नम्रता बनी रहती है और आस्तिकता की भावना पनपती है कि मेरे प्रभु की कृपा से मुझे इतना कुछ मिल चुका है और इससे अधिक की इच्छा अपंग होने के समान है ।
वस्तुतः ईश्वर विश्वास का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है , जिसमे जितना आत्मविश्वास सघन हो , समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा ईश्वर विश्वासी है । जो अपने को दीन-हीन , अपंग, असमर्थ अनुभव करता है , वह उतने ही स्तर का नास्तिक है । आत्मशक्ति की गरिमा को भूल जाने और उसका प्रयोग करने में गडबडाने , लड़खडाने में ही व्यक्ति दीन -हीन बनकर रह जाता है और पग -पग पर असफलताएं प्राप्त करता है ।
सिफलिस रोग की औषधि खोजने वाले प्रसिद्ध विज्ञानी डॉक्टर अर्लिक ने अपनी दवा का नाम रखा '६०६'। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने ६०५ बार बुरी तरह असफल रहने के बाद ६०६ वी बार सफलता पायी थी । इस विलक्षण नाम के पीछे उद्देश्य मात्र इतना था कि लोग यह जान सकें कि असफलता ही सफलता की जननी है । असफलता से निराश नहीं होना चाहिए ।
अपनी सामर्थ्य को भूल जाना अथवा उसका प्रयोग सही रीति से , सही समय पर न बन पड़ना ही वह दुर्भाग्य है , जिसे असफलताओं का जनक कहा जा सकता है , दुसरे लोग भी अड़चन उत्पन्न कर सकते है , परिस्थितियां भी प्रतिकूल हो सकती हैं । इतने पर भी मनुष्य के पुरुषार्थ की धार इतनी कुंठित नही हो जाती , कि उन अगणित अवरोधों को निरस्त ना कर सके , अंधेरे में नए प्रकाश की किरण का उदय ना कर सके ।
----श्रेय तिवारी , मुंबई

Saturday, June 6, 2009

गरीब का द्वार ...!!

देखो गरीब की ड्योढी (दरवाजा) से, माँ शिशु को तन से ढांक रही है ,

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

१- हे शीत बता क्यों आता है , क्यों कोहरा ओस बिछाता है,

उस इन्सां को क्या लाता है , जो ठिठुर - ठिठुर सो जाता है

उसकी चादर की तन से कम , शायद नाप रही है,

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

२- चल ग्रीष्म बता तू क्या कम है , लपटों का अंधड़ हर दम है,

माँ झल्लाती पंखा (हाथ का पंखा) क्यो कम है, नन्हे मुन्ने का रोदन है
पल्लू से पोंछ पसीने को , माँ बच्चे का दुःख भांप रही है

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

३- हे मेघराज क्यों आते हैं , जब जल ही जल बरसाते हैं ,

जा देख जरा उसकी कुटिया, छप्पर, छत , छान चुचाते हैं ।

तब अश्रुधार नैनों से बाहर झाँक रही है ।

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

४- हे मानव क्या दया समेटे हो , कुत्तों को सब सुख देते हो ,

मानवता कुचल गई पग से कुछ शर्म करो , तुम राष्ट्रपिता के बेटे हो ।

(यहाँ पर मैंने यमक अलंकार डाला है , मानव की प्रकृति , और प्रकृति दोनों एक जैसी हो गई है , जिस तरह से प्रकृति को किसी व्यक्ति विशेष से कोई लेना देना नही होता , उसी तरह से आज का इंसान भी बन चुका है )

तुझ पर प्रकृति अपनी प्रकृति को पूरा पूरा छाप रही है ।

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई

Wednesday, April 1, 2009

अनदेखा कर सबके आंसू , अपना ही सोचे जाता हूँ ,
ख़ुद अंगारों से बचता हूँ , फिर क्यो उपदेश सुनाता हूँ ।

१ -अब मुझको ये लगता है संसार में ही दुःख भरा पड़ा,
इस दुःख का भी कारण है , कारण के पीछे कौन खड़ा ?
कैसे क्या कर डालूं ऐसा , रोज विचार बनाता हूँ ,
कोशिश करने की कोशिश में ही फँस कर रह जाता हूँ ।

अनदेखा कर सबके आंसू , अपना ही सोचे जाता हूँ ,

ख़ुद अंगारों से बचता हूँ , फिर क्यो उपदेश सुनाता हूँ ।

2- कैसे बचता रहता हूँ मै अपने ही कर्तव्यों से ,
भौतिकता में उलझा हूँ , है प्यार मुझे क्यो द्रव्यों से ?
नफ़रत होती है ख़ुद से , सब पल में भूले जाता हूँ ,
जब रोज सवेरे उठता हूँ , माया के ही गुण गाता हूँ ।

अनदेखा कर सबके आंसू , अपना ही सोचे जाता हूँ ,

ख़ुद अंगारों से बचता हूँ , फिर क्यो उपदेश सुनाता हूँ ।

3- प्रभु तुम मेरी सोच बदल दो , मै समाज से जुड़ जाऊं ,
आंसू पी लूँ मै सबके , सुख अपने सबको दे जाऊं ।
झकझोरो अंतर्मन , कैसा जीवन जिए जाता हूँ ?
अपना अपना करता था , सबको मै अब अपनाता हूँ ।

अनदेखा कर सबके आंसू , अपना ही सोचे जाता हूँ ,

ख़ुद अंगारों से बचता हूँ , फिर क्यो उपदेश सुनाता हूँ ।

-----श्रेय तिवारी , मुंबई

Wednesday, January 28, 2009

एक दिन चढा मै, तो रेल का सुनाऊ हाल ...

पास मेरे आके बैठा यूपी का भैय्या ...

बीच की निकाली मांग होठ सारे लाल लाल ,

खून सा पिए बैठा था पान का खबैय्या ...

मुझसे पूछे बार बार कहाँ को जाओगे जी साब,

तंग आया मैंने कहा तेरे घर जाऊंगा ,

बोला मेरा घर कहाँ , गाँव से मै आज आया ,

यारी मुझसे करो मै तुम्हारे घर आऊंगा .

चपर चपर करे मेरा चाटा था दिमाग ,

बात करे थूक मारे और मारे ठट्ठा ।

जाने क्या बिगाडा मैंने, पीछे मेरे पड़ गया ,

बड़ा था कमीना , साला- उल्लू का पट्ठा।

जैसे तैसे शांत किया तो भी हा -हा ही- ही करे ,

छोरी संग nayana

बड़ा समझाया पर अकड़ दिखाए लूलू ,

एक हाथ का नही था , दिखता पतंगा ।

ताक रहा बार बार एकटक सामने ही ,

क्योकि आगे वाला था जनानी वाला डिब्बा ।

छेड़ रहा छोरी को तो मारा उसने मुंह पे हाथ ,

मेरे कपडो पे आए पीक के से धब्बा ।

सवेरे सवेरे ठर्रा pe

Friday, January 9, 2009

रिश्ते ...!!

प्यारे दोस्तों
ये कविता मैंने मेरे देश की बेटियों के लिए लिखी है , और यदि मेरी यह कविता किसी भी बेटी और बहन के अंतर्मन को झकझोरते हुए उसकी आँखों में अश्रु की एक बूंद या भावनाओं का सैलाब लेकर आती है , तो मै समझूंगा मेरा कविता लिखना सफल हो गया ।
ये रिश्ते , ये रिश्ते , ये कैसे है रिश्ते ?
ये किसने बनाये है ममता के रिश्ते ।
१- मै नन्ही कली, तेरी बगिया में आई ,
मेरी माँ ने मुझको थी लोरी सुनायी ।
वो पापा का घोड़ा बनाकर खिलाना ,
वो उंगली पकडके यूँ चलना सिखाना ।
मेरे जन्म दाता है मेरे फ़रिश्ते ,
ये किसने बनाये है ममता के रिश्ते ।
२- वो राखी के आते ही सजना संवरना ,
तो भाई से तोहफे की जिद रोज करना ।
मै रुठुं तो मुझको वो हंसके मनाये ,
मुझे प्यार से छुटकी कहके बुलाये ।
अरे ऐसे बंधन नही होते सस्ते ,
ये किसने बनाये है ममता के रिश्ते ।
३- न जाने कली से बनी फूल कैसे ,
समय सब गुज़ारा हो चुटकी में जैसे ।
बनी आज पापा के कंधे का बोझा ,
कहे दूजे घर को तू तैयार हो जा ।
चली मै तो बाबुल के घर से सिसकते ,
ये किसने बनाये है ममता के रिश्ते ।
४- बहुत से घरों को मै मनहूस छाया ,
मेरी माँ ने जाना तो गर्भ गिराया ।
ऐ माँ मै बता कैसे बेटे से कम हूँ ,
बुढापे की लाठी बनूँ मै क्या कम हूँ ।
परी बनके आँगन में हम भी चहकते ,
ये किसने बनाये है ममता के रिश्ते ।
------श्रेय तिवारी , मुंबई