Sunday, December 6, 2009

ये खतरनाक बीबियाँ ...!!

करीब दस साल पहले मैंने ये गाना लिखा था , जब मै कॉलेज में पढ़ा करता था । तब मैंने किसी और गीत से प्रेरित होकर ये गीत नही लिखा था । हालांकि फ़िल्म थानेदार में कुछ ऐसा ही मिलता जुलता गाना आ चुका है , पर मेरे गाने का लय - ताल उस गाने से बिल्कुल अलग है । आज वो गाना मै आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ ।


कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,
कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

ख़ुद पड़ी बेड पर मुझसे झाडू लगवाती है ,
डंडा ले पीछे बैठी , बर्तन मंज्वाती है ।
किससे दुःख बांटू अपना आँखों में आंसू हैं,
मेरा दुःख मेरी बीबी और मेरी सासू है ।

जिसको मुझसे हमदर्दी है , वो मेरी है साली ,
कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,
कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

किस चक्की का खाती है , कुछ काम करे ना काज ,
मेरे राम समझ नहीं पाया उसकी सेहत का राज ।
सब खून पी गई मेरा , मै कीकड़ सा दीखता हूँ ,
वो हाथ प्यार से फेरे मै चक्कर खा गिरता हूँ ।

जब गुस्से में वो आए , दिखती है माँ काली ,
कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,
कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

किस जेल में आ बैठा हूँ , बाहर हरियाली है ,
एक दाल खा बोर हुआ हूँ , मन में बिरयानी है ।
हर रोज जायका मेरा फीका सा होता है ,
नमकीन रोज़ चखने को मन मेरा रोता है ।

वो फूल बंद गोभी सा मै हूँ उसका माली ,
कमबख्त ये घरवाली , मुझको देती गाली ,

कोई मदद करो मेरी , ग्रह मुझपर ये भारी ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई

Thursday, December 3, 2009

जिंदगी एक संघर्ष ...!!

प्यारे दोस्तों ,

मै जब मुंबई आया था , तो कुछ दिनों तक मुझे संघर्ष करना पड़ा था । उस समय मैंने ये कविता लिखी थी । इस कविता को मैंने बहुत सोच समझ के लिखा था । आप इसको जब पढ़े तो ध्यान पूर्वक पढ़े , और कहीं भी ऐसा लगता हो की मैंने पूरी कविता में कुछ जान डाली है तो आप अपने हाथ बंधे हुए ना रखे । झट से कीबोर्ड पर आप अपनी उंगलियाँ चला कर कमेंट्स करें ।

मै वहीं जीता हूँ जीवन , जहाँ कहीं संघर्ष होता ।
सोचता रहता हमेशा क्या यही निष्कर्ष होता ।
हम बहुत पढ़ - लिख लिए अब ऑफिसों में झांकते ,
रिक्त स्थानों में भरती के लिए है भागते ।
पर जुगाड़ों के बिना है नौकरी मिलती कहाँ ,
जो दे रहा अधिकारीयों को नोट की गड्डी जहाँ ।
बस उसी की नौकरी है और उसी की जीत है ,
जाहिल ,जुगाडू भर रखे कार्यालयों की रीत है ।

पर कभी मै सोचता हूँ , मुझमे क्या प्रतिभा भरी ,
मेरे जैसों की करोड़ों में यहाँ लाइन खड़ी ।
युग है स्पर्धा का मुझसे सैकड़ों अच्छे पड़े है ,
साम , दाम और दंड से सब रोजगारी को खड़े है ।
जब हो आबादी अरब तो क्या करोड़ों रिक्तियां हैं ,
और भीड़ में से जो अलग है बस उन्ही को न्युक्तियाँ हैं ।

जाहिल ,जुगाडू, रिश्वतों के बस बहाने मात्र हैं ,
और जो नहीं सामान्य वो ही नौकरी के पात्र हैं ।
है नहीं बेरोज़गारी मेरे भारत देश में ,
एक से बढ़कर एक हैं कुछ पाने के आवेश में ।
घर से बाहर ज्ञात होता मै कहाँ पर हूँ खड़ा ,

(अपने ग्रह नगर में रहते हुए , माँ बाप के सहारे के साथ रहते हुए लगता है कि हम ही सब कुछ हैं , लेकिन जब अपने ग्रह नगर से बाहर आते है , संघर्ष करते हैं और जूझते है तब पता चलता है कि हम तो कुछ भी नही । हम से कितने स्मार्ट और बुद्धिमान लोग इस दुनियां में पड़े है )

घर से बाहर ज्ञात होता मै कहाँ पर हूँ खड़ा ,
मै तो कोयला मात्र , बाहर सोना है बिखरा पड़ा ।
पर नहीं मै हारता हूँ , क्योंकि मेरे ख्वाब हैं ,
चल रहा हूँ मै निरंतर सामने सैलाब हैं ।
है बड़ा विश्वास मुझको पाऊंगा मंजिल यहाँ मै ,
कुछ असंभव है नही , पुरुषार्थ हो तो इस जहाँ मै ।
जो रखें प्रभु पर भरोसा हो स्वयं परमार्थी ,
चल पड़ेगा रथ हमारा , प्रभु बनेंगे सारथी ।
इसलिए मेरा परिश्रम एक दिन रंग लाएगा ,
चाहता हूँ ख्वाब में वो सामने आ जाएगा ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई