देखो गरीब की ड्योढी (दरवाजा) से, माँ शिशु को तन से ढांक रही है ,
मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।
१- हे शीत बता क्यों आता है , क्यों कोहरा ओस बिछाता है,
उस इन्सां को क्या लाता है , जो ठिठुर - ठिठुर सो जाता है
उसकी चादर की तन से कम , शायद नाप रही है,
मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।
२- चल ग्रीष्म बता तू क्या कम है , लपटों का अंधड़ हर दम है,
माँ झल्लाती पंखा (हाथ का पंखा) क्यो कम है, नन्हे मुन्ने का रोदन है
पल्लू से पोंछ पसीने को , माँ बच्चे का दुःख भांप रही है
मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।
३- हे मेघराज क्यों आते हैं , जब जल ही जल बरसाते हैं ,
जा देख जरा उसकी कुटिया, छप्पर, छत , छान चुचाते हैं ।
तब अश्रुधार नैनों से बाहर झाँक रही है ।
मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।
४- हे मानव क्या दया समेटे हो , कुत्तों को सब सुख देते हो ,
मानवता कुचल गई पग से कुछ शर्म करो , तुम राष्ट्रपिता के बेटे हो ।
(यहाँ पर मैंने यमक अलंकार डाला है , मानव की प्रकृति , और प्रकृति दोनों एक जैसी हो गई है , जिस तरह से प्रकृति को किसी व्यक्ति विशेष से कोई लेना देना नही होता , उसी तरह से आज का इंसान भी बन चुका है )
तुझ पर प्रकृति अपनी प्रकृति को पूरा पूरा छाप रही है ।
मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।
---श्रेय तिवारी , मुंबई