Tuesday, June 23, 2009

भजन ..!!

गोविन्द हरे गोपाल ....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

मै तो आन पड़ा तेरे द्वार ....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

१- तेरी माया मै नहीं जाना.....

तुझको मै नहीं पहचाना ।

जब दुःख ने मुझको घेरा.......

मैंने नाम ही तेरा कोसा ।

मेरा जीवन तू दे संवार .....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

२- दुःख - सुख जीवन की छाया ...

मुझको न समझ ये आया ।

मैंने लोभ से सुमिरा तुझको .....

निस्वार्थ ना ध्यान लगाया ।

तुझे मुझसे है फिर भी प्यार .....

मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

गोविन्द हरे गोपाल ....मेरी नैय्या भंवर से उबार ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Sunday, June 21, 2009

बरसात का मौसम ...!!

प्यारे दोस्तों ,

आज मै आपके सामने अपना लिखा हुआ एक गाना प्रस्तुत कर रहा हूँ । जिसे मैंने एक फिल्म के लिए लिखा था , दुर्भाग्यवश वो फ़िल्म रिलीज़ ही नही हो पायी । मुंबई में अभी बारिश शुरू हुई है, ये गीत इस मौसम के लिए उपयुक्त और सटीक रहेगा ।

आई ऋतु मस्तानी रे , काली घटा छाई रे ,

रिमझिम बूंदों में भीगे तन मस्ती सी आई रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

१- पीहू पीहू पपीहा चिल्लाये प्यास बुझी है उनकी ,

कीट पतंगे नाच उठे , मेंढक टर्राये सनकी ।

पूरी हो गयी आशाएं जैसे इन सबके मन की ,

इस मौसम में याद सताई हमको भी बस उनकी ।

गोरे गोरे गाल पे जिनके जुल्फें लहरायीं रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

२- छतरी लेकर निकल पड़े सब बाजारों की ओर,

इधर भी पानी , उधर भी पानी यही मचा है शोर ।

वो आई बिन छतरी के तो नाचा मन में मोर ,

बोला आजा छतरी में , बारिश पकडेगी ज़ोर ।

यारो बारिश हुई तेज़ पर वो नहीं आई रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

३- भीग गए कपड़े उसके और चिपक गए थे तन से,

उनको ढीला करती थी वो कुछ शर्माते मन से ।

फिर भी अपना काम किए जाती थी बड़ी लगन से ,

मुझको कर गयी दीवाना वो पूरे तन -मन- धन से ।

भीगी जुल्फों को संवारती लगती थी प्यारी रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

आई ऋतु मस्तानी रे , काली घटा छाई रे ,
रिमझिम बूंदों में भीगे तन मस्ती सी आई रे ....... कि काली घटा छाई रे ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Monday, June 8, 2009

सफलता की कुंजी -- आशावादी मन स्थिति .

सफलता सभी को अभीष्ट है । उसे प्राप्त करने पर प्रसन्नता होती है । असफलता कोई नही चाहता , यदि वह किसी प्रकार पल्ले बंध जाए , तो दुःख और पश्चात्ताप ही प्रदान करती है । इतना होते हुए भी लोगो में एक बुरी किस्म की भ्रान्ति यह पाई जाती है कि अपने को असहाय, परावलम्बी मानते रहते है और असफलता का दोष और सफलता का श्रेय दूसरों को देते रहते हैं । अपनी ओर नहीं निहारते और यह नही सोचते कि अपने गुण - दोषों कि तरफ़ देखें । यह नहीं विचारते कि अपनी त्रुटियां , दुर्बलताएं और भूलें ही असफलताओं के लिए प्रधानतया जिम्मेदार होती है और जो सफल होते हैं, उनमे उनके गुण, स्वभाव, मान्यताओं एवं धारणाओं का भी बड़ा हाथ होता है ।
मनुष्य की संरचना इस स्तर की है कि यदि वह श्रेष्ठ, स्वाबलंबी एवं सद्गुणी बनकर रहे तो असफलताओं से कदाचित ही पाला पड़े । और यदि कोई विपन्नता आकस्मिक रूप से आ भी जाए, तो ज्यादा देर तक टिकने न पाए । उसका समाधान किसी ना किसी प्रकार निकल ही आए ।
असफलताएं लगातार मिलने , प्रगति की दिशा में कदम न बढ़ पाने और अवगति के देर तक बने रहने का एक ही कारण है - अपने गुण , कर्म और स्वभाव में त्रुटियों का बाहुल्य होना, व्यक्ति के व्यक्तित्व का परिष्कृत , परिपक्व न होना । भगवान ने मनुष्य को इतनी विशेषताओं और विभूतियों से सम्पन्न बनाया है कि वह साधारण स्थिति में न पड़ा रहकर क्रमशः उन्नति कि दिशा में निरंतर आगे बढ़ सकता है और इतना ऊँचा उठ सकता है जितना कि उसका स्रजेता । क्रमबध्द रोप्प से अनवरत चलने वाली चींटी भी इतने ऊँचे पर्वत शिखर पर जा पहुँचती है कि ये विश्वास करना कठिन होता है कि इतना छोटा प्राणी , इतने नन्हे से पैरों के सहारे इतनी ऊंचाई तक किस प्रकार ऊँचा उठ सकता है । किंतु यदि पवन कि गति से चलने वाला गरुण भी आलस्य , प्रमाद से अपने पुरुषार्थ को तिलांजलि दे तो वह आजीवन जहाँ का तहां ही बैठा रहेगा ।
व्यक्ति का अपना मनोबल ही उसे अग्रगामी बनाने में प्रधान रूप से शक्ति और सामर्थ्य प्रदान करता रहा है। गुत्थियों के समाधान में उसी के द्वारा उत्पन्न सूझ बूझ ने सहायता दी है और कठिनाइयों के सरोवर से उतारकर पार किया है । इसमे किसी दैवीय सहायता को अथवा व्यक्ति विशेष को श्रेय देने में यही लाभ है कि अपना अंहकार नहीं बढ़ पाता, नम्रता बनी रहती है और आस्तिकता की भावना पनपती है कि मेरे प्रभु की कृपा से मुझे इतना कुछ मिल चुका है और इससे अधिक की इच्छा अपंग होने के समान है ।
वस्तुतः ईश्वर विश्वास का ही दूसरा नाम आत्मविश्वास है , जिसमे जितना आत्मविश्वास सघन हो , समझना चाहिए कि वह उतना ही बड़ा ईश्वर विश्वासी है । जो अपने को दीन-हीन , अपंग, असमर्थ अनुभव करता है , वह उतने ही स्तर का नास्तिक है । आत्मशक्ति की गरिमा को भूल जाने और उसका प्रयोग करने में गडबडाने , लड़खडाने में ही व्यक्ति दीन -हीन बनकर रह जाता है और पग -पग पर असफलताएं प्राप्त करता है ।
सिफलिस रोग की औषधि खोजने वाले प्रसिद्ध विज्ञानी डॉक्टर अर्लिक ने अपनी दवा का नाम रखा '६०६'। ऐसा इसलिए क्योंकि उन्होंने ६०५ बार बुरी तरह असफल रहने के बाद ६०६ वी बार सफलता पायी थी । इस विलक्षण नाम के पीछे उद्देश्य मात्र इतना था कि लोग यह जान सकें कि असफलता ही सफलता की जननी है । असफलता से निराश नहीं होना चाहिए ।
अपनी सामर्थ्य को भूल जाना अथवा उसका प्रयोग सही रीति से , सही समय पर न बन पड़ना ही वह दुर्भाग्य है , जिसे असफलताओं का जनक कहा जा सकता है , दुसरे लोग भी अड़चन उत्पन्न कर सकते है , परिस्थितियां भी प्रतिकूल हो सकती हैं । इतने पर भी मनुष्य के पुरुषार्थ की धार इतनी कुंठित नही हो जाती , कि उन अगणित अवरोधों को निरस्त ना कर सके , अंधेरे में नए प्रकाश की किरण का उदय ना कर सके ।
----श्रेय तिवारी , मुंबई

Saturday, June 6, 2009

गरीब का द्वार ...!!

देखो गरीब की ड्योढी (दरवाजा) से, माँ शिशु को तन से ढांक रही है ,

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

१- हे शीत बता क्यों आता है , क्यों कोहरा ओस बिछाता है,

उस इन्सां को क्या लाता है , जो ठिठुर - ठिठुर सो जाता है

उसकी चादर की तन से कम , शायद नाप रही है,

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

२- चल ग्रीष्म बता तू क्या कम है , लपटों का अंधड़ हर दम है,

माँ झल्लाती पंखा (हाथ का पंखा) क्यो कम है, नन्हे मुन्ने का रोदन है
पल्लू से पोंछ पसीने को , माँ बच्चे का दुःख भांप रही है

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

३- हे मेघराज क्यों आते हैं , जब जल ही जल बरसाते हैं ,

जा देख जरा उसकी कुटिया, छप्पर, छत , छान चुचाते हैं ।

तब अश्रुधार नैनों से बाहर झाँक रही है ।

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

४- हे मानव क्या दया समेटे हो , कुत्तों को सब सुख देते हो ,

मानवता कुचल गई पग से कुछ शर्म करो , तुम राष्ट्रपिता के बेटे हो ।

(यहाँ पर मैंने यमक अलंकार डाला है , मानव की प्रकृति , और प्रकृति दोनों एक जैसी हो गई है , जिस तरह से प्रकृति को किसी व्यक्ति विशेष से कोई लेना देना नही होता , उसी तरह से आज का इंसान भी बन चुका है )

तुझ पर प्रकृति अपनी प्रकृति को पूरा पूरा छाप रही है ।

मेरी भारत माँ की गोदी में , मानवता थर - थर काँप रही है ।

---श्रेय तिवारी , मुंबई