Saturday, December 20, 2008

इंडिया आगे बढो ..

बिगुल बजाओ ललकारो चढ़ जाओ अपने हाथी पर ,
क्यो सोते हो मार गिराओ चढ़ दुश्मन की छाती पर ।


१- मेरा भारत किसी समय शेरों में जाना जाता था ,
गुर्राता था तब दुश्मन झट से पीछे हट जाता था ।
आज बेचारा धमकी देकर ख़ुद रातों को जाग रहा ,
एक पड़ोसी गीदड़ इसको छका -छका कर भाग रहा ।
कुछ खूनी वहशी आकर धरती की इज्जत लूट गए ,
मुट्ठी भर जुगनूँ घुसकर सूरज के मुंह पर थूक गए ।
क्रिया पर प्रतिक्रिया ना करना हमको तो खेल हुआ ,
न्यूटन का तृतीय नियम भी इसके आगे फेल हुआ ।
आज अहिंसावादी गाँधी रोता पड़ा समाधी पर ,
क्यो सोते हो मार गिराओ चढ़ दुश्मन की छाती पर ।


२- काले दिलवाले हमसे तो प्यार की बातें करते हैं ,
पाकिस्तानी भारत में आ उल्लू सीधा करते हैं ।
प्यार हमारा ही पाकर वो भेद हमारे जान गए ,
खून बहाने वालों को हम शान्ति दूत क्यो मान रहे ।
क्यों इनको आमंत्रित करते मेरे देश की धरती पर ,
बॉलीवुड क्यों नही सोचता इन सब की पाबंदी पर ।

हक खाकर भारतवासी का शोहरत नाम कमाते है ,
मेरी थाली में खाकर भी गीत पाक के गाते है ।

मै खुश होऊंगा अब इन कठमुल्लों की बर्बादी पर ,

क्यो सोते हो मार गिराओ चढ़ दुश्मन की छाती पर ।


३- सारे आतंकी बैठे है जिसके मैले दामन में ,
ज़हर उगलने वाले बैठे हर गलियारे आँगन में ।
आज विश्व में हर कोई इस सच्चाई को जान गया ,
मानवाधिकार आयोग भी आख़िर इन बातों को मान गया ।
फिर क्यो चुप बैठे है हम क्यों नही चढाई करते है ,
खून का बदला खून से लेने में आख़िर क्यों डरते है ।
नौ - ग्यारह हमले का बदला यूएस ने ले डाला था ,
अफगानी धरती पर घुसकर तालिबान को मारा था ।
शर्म क्यों नही करते है हम ऐसी इस आज़ादी पर ,
क्यो सोते हो मार गिराओ चढ़ दुश्मन की छाती पर ।


४- मै स्वागत करता हूँ होटल ओबेरॉय के कहने का ,
नही मिलेगा मौका अब पाकिस्तानी को रहने का ।
ये सीधी सी बात हमारी दिल्ली नही समझती है ,
कर्जा लेने की खातिर इन सबकी लार टपकती है ।
इस कारण अपने आका को नाखुश देख नही सकते ,
देश की किसको फिक्र यहाँ , ये कोई फ़र्ज़ नही रखते ।
मरते है हम और शिकायत आकाओं से करते है ,
क्या मजबूरी है जो हम हमला करने से डरते हैं ।
हिरदय डोल रहा ऐसी कायरता और लाचारी पर ,
क्यो सोते हो मार गिराओ चढ़ दुश्मन की छाती पर ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Thursday, November 27, 2008

बॉम्बे ब्लास्ट ..!!

1- और नवम्बर सत्ताईस की सुबह नई ,
मुंबई पर था हमला जब ये ख़बर सुनी ।
जैसे ही मैंने टेलीवीजन खोला ,
दर्द विदारक चीखों से था मन डोला ।
मचा हुआ था चारों ओर महाक्रंदन ,
प्रभु मेरे विकलांग बने है रघुनन्दन ।
ले लो अब अवतार देश की धरती पे ,
दे दो छुटकारा आतंकी बस्ती से ।
पर प्रभु मेरी बात क्यो नही है सुनते ,
सपने में आकर वो मुझसे है कहते ।
"श्रेय" यहाँ जो अपनी मदद नही करते ,
सच हम भी तो उनकी मदद नही करते ।


२- और तभी मै चिंगारी देने आया ,
जुड़ जाओ सब साथ मेरे कहने आया ।
जान हाथ पर ले आगे बढ़ना होगा ,
दिल्ली से अनुरोध नही करना होगा ।
आँखें मूंदे बैठे है दिल के काले ,
है लाचार बने बैठे सत्ता वाले ।
नही ज़रूरत ऐसे किसी सरफरे की ,
हमें ज़रूरत है "हेमंत करकरे" की ।
बटला में मरने वाले उस "मोहन" की ,
आज ज़रूरत है ऐसे सनकीपन की ।
देश की खातिर कंधे जहाँ फड़कते हों ,
खून देश का अपना समझ भड़कते हों ।


३- जब छब्बीस मिल कर सौ -सौ को मार सकें ,
घायल कर दें सबको ख़ुद ना हार सकें ।
क्या हम उनसे ये भी सीख नही सकते ,
शर्म करो हम इतना जिगर नहीं रखते ।
राजनीति के दल ये दल - दल में अटके ,
आरोपों और प्रत्यारोपण में भटके ।
आतंकी दरिया में हम खाते गोते ,
फिर भी सारे मिलकर एक नहीं होते ।
आज मरे उनमें विदेश के सैलानी ,
भारत संस्कृति क्या है सबने पहचानी ।
अतिथि जहाँ देवों समान रखा जाता ,
आज उन्हें आतंक दैत्य ही खा जाता ।


४- आगे आओ मिलकर हाथ मिलायेंगे ,
भारत को फिर से आजाद कराएँगे ।
समझो बस इस धरती को अपनी माता ,
समझो सबको अपना ही भाई - भ्राता ।
नही ज़रूरत मुझको तख्तो ताजों की ,
नही ज़रूरत स्वागत की और बाजों की ।
मुझे ज़रूरत सबकी देश सुरक्षा में ,
मै मांगू बलिदान देश की रक्षा में ।
बोलो क्या मै ऐसे ही चिल्लाऊंगा ,
दो ज़बाब क्या ऐसे ही मै गाऊंगा ।
इंतज़ार है मुझको देश के पुत्तर का ,
इंतज़ार है मुझको सबके उत्तर का ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई

Monday, November 24, 2008

मेरी अंग्रेजी समस्या ...!!

मै अंग्रेजी में थोड़ा कमज़ोर रहा हूँ ,
इसलिए शायद बड़े कष्ट झेल चुका हूँ ।

एक दिन हमारे फ्लैट पर एक जापानी आया,
हमने उसे डिनर में दही खिलवाया ।
वो बोला "what is it?" मैंने कहा दही ,
नही समझा , बोला "What do you mean by DAHI "
अब मै उसे कैसे समझाता ....
दही की अंग्रेजी जानता तो बताता ।
मैंने सोचा बेटा तिवारी , दिमाग लगाओ ,
और होने वाली बेइज्जती को बचाओ ।
और एक मिनट बाद ही मै बोला .....
"The milk sleep at night.....in the morning tight"
"You also can take a bite..... Is called DAHI "
मेरे साथ मेरा दोस्त था , बोला बहुत सही,
क्या परिभाषा कही , अब इसका बाप भी नही भूलेगा दही ।

ऐसे ही एक बार हमने दस मैलोडी (choklate) खा ली ,
जिससे दस्त और मरोड़ ने आफत कर डाली .....
टीवी पर प्रचार आता था कि "मैलोडी खाओ , ख़ुद जान जाओ"
पर मेरे साथ कुछ ऐसा था कि मैलोडी खाओ और अस्पताल जाओ ।
अब मै अस्पताल में डॉक्टर के पास गया ,
सामने पड़े स्ट्रेचर पर लंबा लंबा हो गया ।
और पूछा कि हे डॉक्टर मुझे क्या हुआ ,
मैलोडी खाई और पेट दर्द क्यों हुआ ।
डॉक्टर बोला श्रेय जी आप इंग्लिश नही पढ़ पाते है ,
हमने कहा क्यों ? बोला इसलिए तो मैलोडी कि जगह माला - डी खाते है ।

-----Shreya Tiwari, Mumbai

Tuesday, November 4, 2008

मेरा दुःख !!

मेरे प्यारे दोस्तों ,

ये कविता मैंने बड़े दुखी मन से लिखी है , इसे लिखने में काफी समय लगा । आप लोग इसको बहुत ध्यान से पढिये , और अपने सुझाव दीजिये । क्या मेरा देश ऐसा ही रहेगा ? आखिर कब तक ये सब चलता रहेगा ?

आजाद धरती की कहानी कवि तिवारी गा रहा है
भाव क्या उसके ह्रदय में आपको दिखला रहा है ।

१- काश्मीर आज मुद्दा गांधी की है देन सारी ,
हरिजनों के सारे हक , वो खा गया गंजा पुजारी ।
जब सुनू मै शब्द ऐसे आँख भर आती हमारी ,
थरथरा उठती शिराएँ क्रोध से सारी हमारी ।

२-क्रांतिकारी कष्ट सहते वतन पर ही मर मिटे ,
आज हम अहसान भूले , क्या से क्या बकने लगे ।
चाहे जब आजाद धरती को ही छल से बेचते ,
खून से सींचा जिन्होंने , वो बागीचा नोंचते ।

३- दो पलों में कह दिया, जीवन गुलामी का सही था ,
अरे तूने कह दिया , आजाद है बंदी (गुलाम) नहीं था ।
भूल डाले क्रांतिकारी जो वतन पर मर मिटे है ,
अमिताभ और सलमान ही तेरी जुबान पर बस चले है ।

४-धन्य है धरती जहाँ वो भगतसिंह को जन्म देती ,
चंद्रशेखर की कहानी सागरों की लहर कहती ।
वायु भी कहती मुझे तुम खून दो आजाद कर दूँ ,
और लहराता तिरंगा ये कहे मै जोश भर दूँ ।

५- दुश्मनों की चाल पर भी अंग ना जिनके फड़कते,
लाज लुटती हो धरा की और ना शोले भड़कते ।
है बड़ी लानत तुम्हारी ज़िंदगी हे कायरो ,
मौत तो आनी ही है , तुम अब मरो या जब मरो ।

६- मानता हूँ रिश्ते - नातों से सभी को प्यार होता ,
पर वतन की आन की खातिर सभी बेकार होता ।
भूख ही जिसको नही वो क्या बताये भोज्य स्वाद ,
और रंग लाती है हिना आख़िर कुचल जाने के बाद ।

७- वीर सीमा पर डटे जो लड़ रहे कठिनाइयों में ,
कडकडाती ठण्ड में भी वो डटे है खाइयों में ।
अरे है माँ -बाप उनके और भइया बहिन भी है ,
दुश्मनों को भून डालें मगर ख़ुद वो अजनबी है ।

८- चार दिन शादी हुए, पर याद ना आए सनम की ,
जीत के ही लौटना , माँ -बाप ने ऐसी कसम दी ।
पर्वत राज हिमालय भी तो झुक उठे इनके नमन को ,
मौत ऐसे प्राण लेकर धन्य समझेगी स्वयं को ।

९- क्या मिलेगा उन सिपाही को जो मर कर भी अमर है ,
श्रेय ले जाते है ' मेजर ' और जो ' ब्रिग्रेडियर ' है ।
सारे मैडल और तमगे सब उन्ही के नाम रहते ,
और सिपाही तो सदा गुमनाम के गुमनाम रहते ।

कारगिल युद्ध में एक नवविवाहित सिपाही की लाश जब उसके गाँव आई , तो उसकी नवविवाहिता पत्नी ने अपने पति की लाश को कन्धा दिया , ये घटना राजस्थान के एक गाँव की है । शायद मेरे देश में ऐसा कम ही सुनने में आता है । मै ऐसी देवी को शत शत प्रणाम करता हूँ । और उसके सम्मान में कुछ पंक्तिया लिख रहा हूँ ।

१०- आज इक्कीसवीं सदी में रूढिवादी जी रहे है ,
छींक लगने पर वो लौटे , पुनः पानी पी रहे है ।
ख़त्म कर दो वो प्रथाएं जो सदा से ही रही है ,
है वो देवी पति की अर्थी को जो कन्धा दे रही है ।

११- वो है गौरव देश की जो भ्रांतियों को तोड़ दे ,
चल रही हों आंधियां वो रूख हवा का मोड़ दे ।
मै नही कहता कि उसको खा सकेगा काल ,
वो है देवी चंडिका का रूप अति विकराल ।

१२- नारियों का देश भारत , नारी मेरी सभ्यता ,
नारियों के चक्षु से बहती है पीड़ा और व्यथा ।
त्याग और बलिदान की मूरत यहाँ की नारिया ,
लक्ष्मीबाई , जिजाबाई थीं यहाँ चिंगारियां ।

१३- अरे है उन्ही के लाल फिर क्यों खून ठंडा हो गया ,
चाँद लालों की वज़ह से देश गन्दा हो गया ।
एक रहता है खड़ा एक नींद में ही सो रहा ,
बेच के इज्जत धरा की ख्वाब में है खो रहा ।

१४-अरे क्यों " तिवारी " दे रहा उपदेश कायर है यहाँ ,
सैकड़ों गद्दार है और सैकड़ों डायर यहाँ ।
सच तो ये है , आज भी हम फिर गुलामी कर रहे है ,
छीनता हमसे जो रोटी हम उसी को चुन रहे है ।

मै हूँ मुश्किल में न जाने , युग कहाँ को जा रहा है ,
"श्रेय तिवारी" पी के आंसू गा रहा है , गा रहा है ... !

-----श्रेय तिवारी , मुंबई

Saturday, September 27, 2008

जागो मेरे देशवासियो ....!!

मै सबको खुश करने यहाँ नही आया ,
ना रामायण वेद सुनाने को आया ।
कैसे चोट दिखा दूँ मै अपने तन की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।

१- खून बह रहा भारत माँ के बेटों का ,
मरहम नहीं है दिल्ली की उन चोटों का ।
कौन हैं वो ? जो देश का रक्त बहाते हैं ,
कौन हैं ? जो बालक अनाथ कर जाते हैं ।
कौन हैं वो ? माँ की गोदें सूनी करते ,
कौन हैं वो ? जो कोई दया नहीं रखते ।
इंसानो का खून बहाते जेहादी ,
कौन सा मज़हब देता है ये आज़ादी ।

सहमी आँखें रोती हैं पीड़ित - जन की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।

२- क्यों सब ऐसे हाथ पे हाथ धरे बैठे ,
क्यो सब ऐसे वार्ताओं में हैं बैठे ।
देश के नेता भाषण के खाते गोते ,
काश के मरने वालों में वो ख़ुद होते ।
तब उनको वो दर्द समझ में आ जाता ,
फिर कोई कानून बनाया ही जाता ।
ये हैं जिम्मेदार खून की होली के,
यही लुटेरे हर दुल्हन की डोली के ।

भीख मांगती धरती आज समर्पण की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।

३- ऐसे जीने से मै मौत सराहूँगा ,
अपने जैसे ही दस-बीस बनाऊंगा ।
वतन की खातिर जो मिटटी में मिल जाएँ ,
मानव- बम बनकर संसद में फट जाएँ ।
जब दिल्ली के नेता सब मर जायेंगे ,
सच मानो हम तब ही खुश रह पायेंगे ।
और इस खातिर देनी होगी कुर्बानी ,
"मै भी हूँ तैयार" आवाजें है आनी ।

सिखलानी परिभाषा दीवानेपन की ,
किससे बांटू मै पीड़ा अंतर्मन की ।

------श्रेय तिवारी , मुंबई

Monday, September 8, 2008

मैंने पूछा मृत्यु से....!!

दोस्तों ,एक बार मैंने कल्पना की ! कि यदि मौत आने से पहले किसी भी इंसान को जीने का एक अवसर (कुछ पलों के लिए) दे, तो उन पलों में कोई भी व्यक्ति क्या - क्या करना चाहेगा .......!!


मैंने पूछा मृत्यु से ........ साथ ले चलने से पहले एक मौका दे सकोगी ।


१- उस एक मौके में मुझे कुछ काम हैं अपने बनाने ,
पाप का जीवन रहा है , पुण्य कर लूँ इस बहाने ।
स्वर्ग की राहें किधर है , पंडितों से थी समझना ,
पुत्र का मुख देखना था , ज़िंदगी की थी तमन्ना ।
छोटी है बच्ची मेरी करनी, भरण - पोषण व्यवस्था ,
बीबी है बीमार सी , उसकी ही नाज़ुक सी अवस्था ।
छान, छत, कुटिया बनाकर , कुछ तो दूँ उसको बसेरा,
बस ये इच्छा आख़िरी, उनका सुनहरा हो सवेरा ।


क्या तुम बता दो एक पल मुझ पर भरोसा कर सकोगी .......
मैंने पूछा मृत्यु से साथ ले चलने से पहले एक मौका दे सकोगी ।


२- उस एक मौके में मुझे बेटी के पीले हाथ करने ,
उच्च शिक्षा के लिए बेटों को भेजूंगा मै पढ़ने ।
फिर वधु का सुख मुझे बस देखना रहता ही बाकी ,
तृप्त होता ही नही इच्छा की मदिरा से ये साकी ।
सोचता है, फिर करूँ दीदार नन्हे पौत्र का मै ,
खेल खेलूं साथ उसके , साथ खाना खाऊँगा मै ।
तोतले मुख से मै 'दादा' शब्द का भी श्रवण कर लूँ ,
साथ बीबी के मै चारों धाम का भी भ्रमण कर लूँ ।


क्या तुम बता दो फिर मुझे काशी मै आके मिल सकोगी .............
(ऐसा माना जाता है कि काशी मै मृत्यु होने से इन्सान स्वर्ग में जाता है )
मैंने पूछा मृत्यु से ........ साथ ले चलने से पहले एक मौका दे सकोगी ।


अब मृत्यु ने इंसान को क्या जबाब दिया ....वो सुनिए .....


३- दे दिया तुझको जो मौका , फिर तो हा - हा कार होगी,
इस धरा पर तुच्छ मानव की उफनती बाढ़ होगी ।
फिर तो शायद ही कभी तू , मृत्यु से भयभीत होगा ,
काल की आहट, तुझे तो मात्र एक संगीत होगा ।
मै तुझे पहचानती , इंसान नीयत भी तुम्हारी ,
जब समय आएगा , तब तू फिर बढ़ाएगा उधारी ।
दस बहाने नित बना , मुझको भी धोखा दे चलेगा ,
मै नही , यमराज भी तुझको ना मौका दे सकेगा ।


इसलिए मै अब तुझे ना और अवसर दे सकूंगी ,
और मै न खाऊँगी तुझे , तो मै न जिंदा रह सकूंगी ।

---------श्रेय तिवारी , मुंबई

Friday, September 5, 2008

क्या ये परोपकार है !

एक पादरी ने स्कूल भी चला रखा था । वे बच्चों को रोज़ शिक्षा देते की कोई दया का काम ज़रूर करना चाहिए । शिक्षा देते हुए बहुत दिन हो गए तो उन्होंने सोचा - लड़कों से पूछें तो , की क्या कोई दया धर्म पालन के लिए उत्साहित हुआ भी कि नहीं ?


उस दिन पादरी पूछ ही बैठे - जिन्होंने इस महीने कुछ दया के काम किए हों , वो अपने हाथ ऊपर उठाएं । तीन लड़कों के हाथ ऊपर उठाए । पादरी ने उन्हें पास बुलाया , और प्यार से पूछा - बच्चो बताओ तो तुमने भला क्या -क्या दयालुता के काम किए ?


पहले लडके ने कहा - एक जर्ज़र बुढ़िया को मैंने हाथ पकड़ कर सड़क पार कराइ । पादरी ने उसकी प्रशंसा की । दुसरे से पूछा गया , तो उसने भी एक बुढ़िया को हाथ पकड़कर सड़क पार कराने की बात की । पादरी ने उसे भी शाबासी दी । अब पादरी ने तीसरे से पूछा , तीसरे ने भी जब वही बुढ़िया का हाथ पकड़कर सड़क पार कराने वाली बात कही , तो पादरी को संदेह हुआ और आश्चर्य भी । उन्होंने पूछा बच्चो ! कहीं तुमने एक ही बुढ़िया का हाथ पकड़कर तो सड़क पार नहीं कराई थी ।


बच्चो ने एक स्वर में कहा - हाँ , बिल्कुल ऐसा ही किया था , अब तो पादरी का आश्चर्य और भी बढ़ गया । उन्होंने फिर पूछा - भला एक ही बुढ़िया को सड़क पार कराने के लिए तुम तीनो को क्यों जाना पड़ा ?


लड़कों ने कहा - हमने उससे कहा था कि हमको दया धर्म का पालन करना है , चलो तुम्हे हाथ पकड़कर सड़क पार कराएँगे । बुढ़िया राजी नहीं हुई । उसने कहा - मुझे जहाँ जाना है , वह सड़क के इसी किनारे पर है । सड़क पार करने की मुझे ज़रूरत ही नहीं है । इस पर हम तीनो उस बुढ़िया से चिपट गए । और उसके हाथ पकड़कर खींचते हुए ले गए , और सड़क पार करा कर की माने ।


पादरी लड़कों द्वारा किए गए इस धृष्ट परोपकार से बड़ा दुखी हुआ और कुछ देर तक उदास बैठा रहा , फिर ये सोच कर शांत हो गया कि भारत में समाज - सेवा के नाम पर यही तो विडम्बना चल रही है , अकेले बच्चे ही गुनाहगार नहीं है ।

--------श्रेय तिवारी , मुंबई

Saturday, August 30, 2008

मेरा एकाकीपन ...!!

प्यारे दोस्तों ,
मै १९९८ में जब 'सी ऐ ' कोर्स की तैयारी कर रहा था, तब में दिल्ली में रहता था । उस वक्त मैंने ये कविता लिखी थी । ये मैंने मेरे पिताश्री को एक पत्र लिखा है , जिसे मै आज आपके समक्ष कविता के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

पूज्य पिताजी दुखी हुआ हूँ , इस एकाकी जीवन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

१- छोड़ के अपना शहर अलीगढ, एक कमरे में बैठा हूँ ,
कब पीछा छूटेगा अपना, सोच के ख़ुद से रूठा हूँ ।
अरे पिताजी कब तक धोने कपडे 'श्रेय तिवारी' को ,
लंच डिनर भी स्वयं बनाना दूर करो बीमारी को ।

माताजी तुम भी समझाना कैसे भी अपने ढंग से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

२- कितने पापड़ बेल के भागा, फुलझडियों के पीछे ,
गाली सुन - सुन आँखे झुक जाती है शर्म से नीचे ।
वैसे तो सुरबाला मैंने करी पसंद अनेक ,
पर प्रस्ताव के रखते ही , कहती आईना देख ।

इस बेटे का दर्द समझना , दूखी है वीराने- पन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

३- एक से दो भी हो सकते है , आप अगर आदेश करें ,
मुश्किल से एक की है राज़ी , आप अगर ना क्लेश करें ।
'पहले लक्ष्य को प्राप्त करो' उपदेश है पिता तुम्हारा ,
सी ऐ , की है क्या गारंटी , कब तक रहूँ कुंवारा ।

तब तक ठंडा हो लूँगा , अपने जोशीले जीवन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

-----श्रेय तिवारी , मुंबई

Monday, August 25, 2008

क्या ये मेरी ज़िंदगी है ?

दोस्तों ,

मैंने बचपन से ही अपना एक उद्देश्य बनाया की मै धन के पीछे नही भागूँगा , मै अपना नाम कमाना चाहता हूँ । मै चाहता हूँ कि मेरे पापा के लिए लोग बोले कि ये 'श्रेय के पापा ' हैं ।

इसके लिए मै पता नही कहाँ - कहाँ भटकता रहा , फिर एक दिन मेरे दिमाग में एक बात आयी जिसे मै आपके समक्ष कविता के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

कभी सोचता हूँ मै कैसा जीवन जिए जाता हूँ ,
धन दौलत शोहरत के पीछे - पीछे भागा जाता हूँ ।


१- बचपन से ही सोचा शोहरत मुझको भी मिल जायेगी,
नेता - अभिनेता या फिर वो कविता से मिल जायेगी ।
लेखक बन जाऊंगा या फिर निर्माता बन जाऊंगा ,
निर्देशक बन करके भी मै अपना नाम कमाऊंगा ।
फिर डैडी को पहचानेगे लोग 'श्रेय के पापा' से ,
फैन बनेंगे लोग मेरे ऐसा मेरी अभिलाषा में ।
एक तिहाई जीवन मेरा सोच सोच के बीत गया ,
भाग दौड़ के चक्कर में ही सारा समय व्यतीत हुआ ।

आम आदमी जैसा जीवन जी के मै शरमाता हूँ ,
कभी सोचता हूँ मै कैसा जीवन जिए जाता हूँ।


२- एक दिवस मै शयनकक्ष में कुछ उदास सा लेटा था,
प्रश्न स्वयं करके ही मै उत्तर भी ख़ुद को देता था ।
नहीं चाहिए धन दौलत मै तो बस नाम कमाऊंगा ,
पर ये भी आसान नहीं मै कैसे क्या कर पाऊंगा ।
तब दिमाग ने याद किया फिर प्यारे संत बिनोवा को ,
विद्यासागर याद किए , शत नमन आमटे बाबा को ।
ऋषि दधीची , सावित्री को तो भूल नहीं हम पाएंगे ,
सदियों तक ये नाम हमारे इतिहासों में आयेंगे ।


नाम कमा सकता ऐसे भी ,फिर क्यों मै अकुलाता हूँ ,
कभी सोचता हूँ मै कैसा जीवन जिए जाता हूँ ।


३- ये समाज मेरा घर है , ये देश बना मेरा कुनबा ,
दर्द हटे , दुःख दूर भगे मुझ पर सेवा की एक दवा ।
जितना मुझसे हो सकता है , उतना करता जाऊंगा ,
और नहीं तो रोते चेहरों को मै खूब हँसा दूंगा ।
मेरे प्यारे दुखी भाइयो सेवा का अवसर दे दो ,
ये सब मै निस्वार्थ करूँ , मुझको प्रभु ऐसा वर दे दो ।
ऐसे करते करते ही मै जीवन सफल बनाऊंगा ,
जानवरों सा जिया हूँ मै , अब इंसान बन पाऊंगा ।


चुप रहके भी कर सकता हूँ , क्यो मै खुल के गाता हूँ ,
कभी सोचता हूँ मै कैसा जीवन जिए जाता हूँ ।

----श्रेय तिवारी , मुंबई


Friday, August 22, 2008

भजन......!!

मेरे दोस्तों , मैंने एक भजन लिखा है । और आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हूँ , यदि आपको पसंद आता है तो मै आपका समर्थन चाहूँगा ।


मेरे प्रभु मेरे तू मेरा स्वामी ,
मै दास तू अन्तर्यामी ।


तेरे द्वारे मै तब आया ,
जब ठोकर पग पग खाया ।
मैंने दुःख में सुमिरा तुझको ,
नही सुख में dhyaan लगाया ।
मन में नही मूरत तेरी ,
माया में थी नीयत मेरी ।
मैंने लोभ किया बस धन का ,
नही ध्यान किया एक छन का ।


मै तो हूँ बस अज्ञानी ,
मै दास तू अन्तर्यामी ।


तेरे द्वारे जो भी आए ,
रोता हुआ भी हंस जाए।
जो अंतर्मन से सुमिरे,
तू दर्शन भी दिखलाये।
बालक हम तेरे विधाता,
क्या मांगू मै मेरे दाता।
तुझे नित-नित शीश झुकाऊ,
बिन मांगे सब कुछ पाऊ ।


सद्बुद्धि दो मेरे स्वामी ,
मै दास तू अन्तर्यामी ।

---श्रेय , Mumbai

Wednesday, July 30, 2008

मेरा भारत कहाँ गया मै ढूंढ़ रहा बाज़ारों में ,

वतन बेचने वाले बैठे संसद के गलियारों में ।

१- आजादी के लिए लडाई लड़ी यहाँ धनवानों ने ,

गांधी , नेहरू , बोस बहादुर जैसे इन दीवानों ने ।

वतन हुआ आजाद आज भूखे - नंगों को सौंप दिया ,

अपने घर भरके, कटार तो जनता के ही भौक दिया।

क्या इनको है नहीं दिखायी देती देश की लाचारी ,

दीन दुखी का भोजन , शिक्षा और भयानक बीमारी ।

हम तो अपनी इनकम में से सारे टैक्स चुकाते है ,

मुद्राकोष बहुत होता , पर वो सब कुछ खा जाते है ।

क्यों भूला बैठा , क्या क्या मेरे अधिकारों में ,

वतन बेचने वाले बैठे संसद के गलियारों में ।

Tuesday, July 8, 2008

कलम को तलवार बनाओ !

अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
१- बहुत गाये है प्रणय के गीत तुमने , और अब भी मीत गाये जा रहे हो ।
प्रेयसी के अधर पुट में ही पगे क्यों , नयन नद में गहन गोते खा रहे हो ॥
जा रहे उन्माद सरिता में बहे पग , रस विहारों में बिहारी हो रहे हो ।
देव की दुनिया लिए अन्तर अभागे , तड़पते प्रिय विरह मन के हो रहे हो ॥
त्याग दो श्रृंगार के सौदे सभी यह , समय है हर अंग में अंगार भर दो ।
अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
२- डूबता जाता अरे संसार देखो , स्वार्थ की आंधी भयावह चल रही है ।
नच रही नंगी दनुजता दुष्ट दासी , मनुजता मजबूर घुट- घुट गल रही है ॥
सिसकती सीता सरीखी नारियां है , और उर्वशियाँ यहाँ सम्मान पायें ।
रम रहे है राम विचलित और आहत, रावणो का राज्य मद में बौखलायें ॥
चेतना दो चेत जाए मनुजता यह , दनुजता की स्वर्ण लंका क्षार कर दो ।
अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
३- भ्रष्टता का हो रहा तांडव अनोखा , दुराचारी दस्यु आसन चढ़ रहे है ।
कर रहे ज्यों - ज्यों अथक श्रम दीन मानव , वह अभावों बीच त्यों त्यों बढ़ रहे है ॥
भोज दुर्योधन के यहाँ ही खा रहे है , दोष भोजन का विदुर पर मढ़ रहे है ।
भूख से व्याकुल तड़पते दीन दुर्बल , वस्त्र , भोजन, कफ़न लाले पड़ रहे है ॥
भैरवी गाओ अरे कवि ! उच्च स्वर से , जाग जायें रुद्र -गण गति गीत भर दो ।
अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
-------श्रेय तिवारी , मुंबई

Sunday, June 22, 2008

ये राजनीती !

किसकी करें ये बात, किससे कहें ये बात,
गिरते इस देश को बचाने वाला कौन है ।
राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,
और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

पीडितों, गरीबों, असहाय जनता का यहाँ ,
हाल चाल लेने और देने वाला कौन है ।
जाति धर्म , क्षेत्र और भाषा के हो गए सभी,
आदमी को आदमी बनाने वाला कौन है ।

राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,

और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

कैसा आया लोकतंत्र , व्यवसाय राजनीती ,
लाभ का बना ये तंत्र सेवा करे कौन है ।
भीड़ कहें भेड़ कहें , जनता को जो भी कहें,
भेड़ियों से हमको बचाने वाला कौन है ।

राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,

और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

जोड़े तोडे गठजोड , राजनीती है विचित्र मोड़,
सीधे रास्ते पे इन्हें लाने वाला कौन है ।
डरपोक बुद्धजीवी लिपटा है स्वार्थ में तो ,
कीचड में कमल खिलाने वाला कौन है ।

राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,

और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

गाँधी और नेहरू का नाम लेते भ्रष्टाचारी ,
गुमराहियों से अब बचाने वाला कौन है ।
रावणों के वंशज और जयचंदों के लाल है ये,
इनसे निजात भी दिलाने वाला कौन है ।

किसकी करें ये बात, किससे कहें ये बात,
गिरते इस देश को बचाने वाला कौन है ।
राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,
और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

----------श्रेय तिवारी , मुंबई

Tuesday, June 17, 2008

संघर्ष से सफलता तक ..

मेरे प्यारे दोस्तो ,
ये कविता मैंने उन लोगो के लिए लिखी है , जो जरा सी परेशानियों से बहुत घबरा जाते है या हतोत्साहित हो जाते है , ये कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं मुम्बई मे संघर्ष कर रहा था । मुझे वो दिन याद आ जाते है और वो संघर्ष सच मे मृत्यु के समान ही था । पर संघर्ष कि जलन को जो लोग झेलते हुए आगे बढ़ते है , और प्रभु से कहते है , " कि आप अपना काम कीजिये, और मैं अपना काम करता रहूंगा " यकीं मानिये प्रभु भी ऐसे लोगों से परेशान होकर हार मान लेते है , और ऐसे लोग को ही सफलता मिलती है । ऐसे लोग काल की भी दिशा बदल देते है , और एक सार्वभौमिक सत्य ये भी है , जिस पर मेरा अटूट विश्वास है , कि प्रभु उसी को ज्यादा कष्ट देते है , जिससे वो ज्यादा प्यार करते है ।
मृत्यु से लड़ने चला,
तो ज़िंदगी से क्यों डरु मैं...
अश्रु पीकर जी रहा ,
संघर्ष से फिर क्यों डरु मैं ....
चल रहा एकल निरंतर,
कंटकों मे पग पड़े है ......
आहटे लगती भयंकर,
राह मे शोले पड़े है .....
तीक्ष्ण है उनकी ज़लन,
वो ज़लन ही तो काम की है ...
घट न पाए, यदि लगन ,
तो ज़िंदगी आराम की है .....
कष्टमय हो ज़िंदगी ,
तो प्रभु परीक्षा ले रहे...
हम करें बस बन्दिगी ,
दुःख पी रहे , प्रभु दे रहे ....
प्यार करते प्रभु उसी को ,
कष्ट मे जो जी रहा हो ....
मुस्कुरा कर जीना सीखो,
दुःख रहे या सुख रहा हो...
है प्रतीक्षित वो समय ,
जो चिर - प्रतीक्षित भी नही है....
हो चलेगी तब प्रलय,
क्या ये सुनिश्चित सी नही है ....
हर समय सुख को मचलना,
भी तो केवल भ्रांति है ......
काल के रुख को बदलना ,
ही प्रलय की भांति है .......
-------श्रेय तिवारी, मुम्बई


Saturday, May 31, 2008

मेरी प्यारी माँ ......!!

दोस्तो, ये एक छंद है, जो कि मैंने 'माँ' को समर्पित किया है , छंद को पढने का तरीका आम कविताओं से थोड़ा अलग होता है , छंद रा , ज , भा , ग .... रा , ज , भा , ग के तरीके से पढ़ा जाता है , सच तो ये है कि छंद कवि के मुख से सुनने मे ही सुंदर लगता है । पर मुझे ये पता है कि आप लोग विद्वान और हिन्दी साहित्य के जानकार है , और आप अवश्य ही मेरी रचना पर टिपण्णी देंगे ।


माँ मेरी तू है महान देवी देवता समान ,
तेरे पग की धूल मैं ललाट से लगाऊंगा ।
तेरे प्यार की पवित्रता है गंगा के समान ,
जिंदगी भी कम रहेगी मोल जो चुकाऊंगा !

1- जन्म देती हँसके सारी पीड़ाये सहन करे ,
है ख़ाक मेरी ज़िंदगी जो उसको मैं दुखाऊंगा ।
ठंड बाँट ली थी मेरी , छाती से लगा बदन ,
मैं आज तेरी आरजू को पूरा कर दिखाऊंगा ।


तेरे प्यार की पवित्रता है गंगा के समान ,
जिंदगी भी कम रहेगी मोल जो चुकाऊंगा !

2- तू न सोई रातभर सुलाया मुझको थपकी मार ,
तेरी लोरी और कहानी भूल मैं न पाउँगा ।
मुझको जब भी कष्ट हुआ तू भी रोई बार बार ,
आज तेरे सारे दुःख मैं हस के झेल जाऊंगा ।

तेरे प्यार की पवित्रता है गंगा के समान ,
जिंदगी भी कम रहेगी मोल जो चुकाऊंगा !

(इन चार पंक्तियों को ध्यान से पढिये, मैंने यहाँ "उपमा" शब्द को दो बार किस तरह प्रयुक्त किया है )


3- माँ तेरी विशेषताएं गिन न पाऊं मैं कभी ,
और उपमा(compare) मैं तेरी किसी से आज कर न पाऊंगा,
माँ तो माँ है सर्वदा , उप -माँ न होती है कभी ,
उप -माँ हुई तो कैसे तेरा लाल मैं कहाऊंगा ।


तेरे प्यार की पवित्रता है गंगा के समान ,
जिंदगी भी कम रहेगी मोल जो चुकाऊंगा !

4- ऐ मेरे प्रभु तू देना माँ के गम सभी मुझे ,
मैं अपने सुख से माँ की झोलियों को भरता जाऊंगा ।
और थक जो जाऊँ मैं कभी माँ अंक (गोदी) मे लेना मुझे ,
हर जन्म - जन्म माँ तेरी ही कोख मे समाऊंगा ।


माँ मेरी तू है महान देवी देवता समान ,
तेरे पग की धूल मैं ललाट से लगाऊंगा ।
तेरे प्यार की पवित्रता है गंगा के समान ,
जिंदगी भी कम रहेगी मोल जो चुकाऊंगा !

--------------श्रेय तिवारी , मुम्बई

Wednesday, May 28, 2008

ओ मेरी माँ...!!

दोस्तो , १० जनवरी को मैं जैसे ही दिल्ली एअरपोर्ट पर लैंड हुआ, मैंने वही नजदीक मे एक बहुत ही दर्द विदारक द्रश्य देखा । एक दुबली पतली औरत कोयले के पत्थरों को हथोडे के प्रहार से छोटा छोटा कर रही थी । उस समय दिल्ली का तापमान ४ से ५ डिग्री रहा होगा । उसका ५-६ महीने का बच्चा वही जमीन पर टाट (बोरी) के टुकडे मे लिपटा हुआ था । ये देखकर मैं सारी रात चैन से नही सोया, और उसी वक्त मैंने ये रचना लिखी ।

ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,
देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे ।

ऐ प्रकृति क्या तुझे सूझी , ये कैसा शीत लायी है ,
ये माँ नवजात शिशु को अंग से यूं भींच लायी है ।
है धोती एक मैली सी , जिसे तन पर सजाया है ,
उसी का एक पल्लू ही , तेरे मुन्ने पे छाया है ।
चले जब शीत लहरें तो , रक्त होता गरम तेरा ,
तेरा शिशु कांपकर चिपके , कौन समझे मर्म तेरा ।

तेरा तो है विधाता ही , ये दोनों ही जहाँ तेरे ,
ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,
देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे।

अभी दिल्ली मे देखा था तुझे , तू काम करती थी ,
तू पत्थर तोड़ती थी , फिर किसी गड्ढे मे भरती थी ।
वही नजदीक ही बच्चा तेरा बोरे मे लिपटा था ,
बड़ा ही शांत था , वो मौन था , चुपके से लेटा था।
वो शायद देखता था , माँ तेरे बलिदान की सीमा ,
वो देगा सुख तुझे सारे , बनेगा तेरा आइना ।

वो ख़ुद को भूलकर , अहसास करता कष्ट सब तेरे,
ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,
देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे ।

कि अब मैं सोचता हक़ क्या मेरे कपडे पहनने का ,

ये सारे सूट और स्वेटर नए , नित ही बदलने का ।

ये कैसी भूल है मेरी , मैं उनको भूल जाता हूँ ,

मैं मेरे देशवासी से क्यों इतना दूर जाता हूँ ।

आज से मैं भी उतने वस्त्र ही पहनूँगा जीवन मे,

अगर पहना नहीं सकता मैं कुछ निर्वस्त्र के तन पे ।

ये झूठी शान पर अब से नहीं अधिकार कुछ मेरे ,

ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,

देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे ।

------श्रेय तिवारी , मुम्बई

Monday, May 26, 2008

मेरे भारत का बचपन !!

मैंने ये द्रश्य मुम्बई के एक उपनगरीय स्टेशन पर देखा था , और उसी दिन मैंने ये रचना लिखी थी ।

क्यों मेरे भारत का वासी करुण कराहें लेता है ,
यहाँ का बचपन , बचपन मे ही अन्तिम सांसे लेता है ।

स्टेशन पर खड़ा प्रतीक्षा करता था मैं गाड़ी की,
“पोलिश ” की आवाज़ सुनी जब दस वर्षीय अनाडी की ।
हाथ मे था गन्दा थैला , और थामी थी घर की कमान ,
कपडे थे कुछ फटे हुए , पर आंखों मे था स्वाभिमान !!

कहता पोलिश दो रुपया , करवाले बाबू, क्या कर दूँ ?
दो रुपया मे तेरे जूते शीशे जैसे चमका दूँ ।
सुबह का टाइम है बाबू कोई बोनी मेरी करवा दे ,
क्रीम लगाकर चमका दूंगा , दो रुपया मे करवा ले ।

झिटक रहे थे लोग उसे , पर उसमे था विश्वास बड़ा ,
हर व्यक्ति से करे प्रार्थना , हो करके नजदीक खड़ा !
तभी एक बाबूजी बोले , चल मेरे जूते कर दे !
ट्रेन का आने का टाइम है , झट से चमका कर दे दे।

बच्चे का मुख चमक उठा , सोचा मेरी बोहनी होगी ,
सोचे चालीस रूपये को अब बीस मुझे करनी होगी ।

(उसने पूरे दिन के लिए ४० रुपये कमाने का लक्ष्य बनाया है )

जैसे ही जूते चमका , बाबू के पांवों मे डाले ,
ट्रेन खड़ी थी बाबूजी तो ट्रेन के अन्दर को भागे ।
गाड़ी मे से बोले छुट्टे आज नही है पास मेरे ,
कातर नैना बच्चे के थे देख रहे थे आस भरे ।


(अब देखिये मैंने उस आदमी को क्या बोला)

अरे भले मानुष ट्रेनों मे पाँच मिनट का अन्तर है ,
भारत के इंसानों का तो दिल भी बड़ा समुन्दर है ।
दो रूपया बच्चे के मारे , दो रूपया औकात तेरी ,
बच्चा बोले अभिशापों मे लेता जा सौगात मेरी ।

(अब बच्चे के मन के भाव देखिये । मैंने पूरी कविता की जान इन दो पंक्तियों मे डालने की कोशिश की है )

बच्चा सोचे चालीस मे से दो रुपया है दान किए ,
अड़तीस तो फिर भी मेरे है प्रभु ने जब दो हाथ दिए ।


-----श्रेय तिवारी
मोबाइल - 9833515147

Wednesday, May 21, 2008

मेरे कॉलेज के दिन ....!!


कैसे भूलूं मैं तुझको सदा के लिए ,
मेरे जीवन मे जिसने ज़लाये दिए ।

१- मुझको याद आते है , मेरे कॉलेज के दिन,
हम तो रहते ना थे , एक दूजे के बिन।
होके एक पल जुदा , हम तड़प जाते थे ,
एक पल मे ही आंसू निकल आते थे ।

याद कर उन पलों को ही हम तो जिये ,
कैसे भूलूं मैं तुझको सदा के लिए ,
मेरे जीवन मे जिसने ज़लाये दिए ।


२- झूठे से हाथ देखा था मैंने यूं ही ,
तेरी गोरी कलाई थी थामी यूं ही।
एक से एक थी हंसीं तेरी हर एक अदा,
सोचता था तू मेरी रहेगी सदा ।

फ़िर कयों इतने सितम तूने हम पर किए ,
कैसे भूलूं मैं तुझको सदा के लिए ,
मेरे जीवन मे जिसने ज़लाये दिए ।


३- प्यार दिल का है सौदा ना दौलत का है ,
यूं ही बन जाता रिश्ता मोहब्बत का है।
तुम हो धनवान, दिल मेरा अनजान था,
वो तो दिल पर तुम्हारे मेहरबान था ।

ले लो सुख मेरे, दुःख दे दो मुझको प्रिये
कैसे भूलूं मैं तुझको सदा के लिए ,
मेरे जीवन मे जिसने ज़लाये दिए ।

-----------श्रेय तिवारी , मुम्बई


कविता और कवि की परिभाषा ...!!

कविता क्या है ?

खुशियों से दामन रूठा है ,
दुःख दर्द से दिल भी टूटा है
ऐसा गम ह्रदय छूता है ,
बेबस नज़रों से चूता है ॥

यदि अश्रु ना छलकें आंखों मे,
तनहाई हो दिन रातों मे ।
एक पंक्ति कंठ से आती है ,
पीड़ा और व्यथा सुनाती है ।

ऐसी करुणामय वो रचना,
सच्ची कविता कहलाती है ॥

कवि क्या है ??

जिसने बांटा इन छंदों को ,
एक महफ़िल के कुछ बंदों को ।
जो जीने को समझाता है ,
जीने का अर्थ बताता है ॥

प्रेम न्याय और सत्य दया,
सब रचनाओं मे गाता है ।
अपना गम सीने मे रखकर
दुनिया को खूब हँसाता है ॥

कहे तिवारी ऐसा विरला ,
सच्चा कवि कहलाता है ॥

-- श्रेय तिवारी

Tuesday, May 20, 2008

मेरा भारत महान कैसे है (व्यंग्य)....!!

मैं आज अपनी सबसे बड़ी रचना आपके समक्ष प्रस्तुत कर रहा हूँ । यदि आप हिन्दी साहित्य को पढने का शौक रखते है , तो मैं वादा करता हूँ कि आपको ये रचना ज़रूर पसंद आयेगी । और आप मुझे अपने कमेंट्स के द्वारा प्रोत्साहित करेंगे । एक तरफ हम कहते है कि मेरा भारत महान है । पर मैंने कुछ बातें नोट की है ...और मैंने ये व्यंग्य किया है ....कि क्या इस तरह ही मेरा भारत महान है .....!!

मत सोवो अब जागो यारो , तुम्हे जगाने आया हूँ ,
भारत कैसे है महान , बस यही बताने आया हूँ ।

हमने ये नारा चलाया कि हिंदू ,मुस्लिम, सिख इसाई, आपस मे है भाई भाई ... पर हमने ये कैसे अपनाया.......

1- हिंदू , मुस्लिम , सिख इसाई , आपस मे है भाई -भाई,
हिंदू है हिंदू का भाई , मुस्लिम मुस्लिम का है भाई ।
सन सैतालिस से लेकर हमने यही पंक्तियाँ है गाईं ,
फिर भी मेरे देशवासियो हमे एकता ना आई ॥

मुझको है अहसास मेरी धरती माँ , तेरे छालों का ,
ले लूँगा मैं गिन गिन के , बदला तेरे अपमानों का ।
मैं वो कायर नहीं जो तेरी लाज बचा ना पाऊंगा ,
तेरी खातिर भगत सिंग, आजाद , बोस बन जाऊंगा !
जो मेरी धरती पर करते है सौदा तलवारों का ,
कोई मतलब नही जिन्हें , करुणामय चीख पुकारों का !
तुझे बेचकर धन लूटा , लेते आनंद बहारों का ,
तेरे चरणों मे ला दूंगा शीश उन्ही गद्दारों का ॥

जर्जर है भारत भूमि , हे वीरो तुम्हें पुकार रही ,
देश -भक्त तुम कहाँ छिपे , सबके सब तो गद्दार नही ।
श्रेय तिवारी , वतन की झोली मैं जीवन दे जाएगा ,
कतरा कतरा मेरे तन का काम देश के आएगा ।
अपने मन की पीडा को मैं खुल के गाने आया हूँ ,

भारत कैसे है महान , बस यही बताने आया हूँ ॥

2- हे भारत के नेताओ तुम नमक देश का खाते हो ,
अर्थ व्यवस्था का ढांचा कमज़ोर तुम्ही कर जाते हो ।
घोटाले करते करते , तुम नमक हरामी करते हो ,
फिर भी खादी पहन दिखा , सच्चे नेता तुम बनते हो

नमक के लिए बलिदान कैसे किया जाता है ...अब ये पढिये ........!!

नमक की खातिर ही पन्ना ने चंदन का बलिदान किया,
नमक की खातिर ही राणा ने वर्षों वन मे वास किया ।
अति का अंत सुनिश्चित है , एक दिन ऐसा भी आएगा ,
नई क्रांति होगी भारत मे नेता ना जी पायेगा ।

भारत माँ का हर बच्चा तेरी करतूतें जान गया ,
देश के रक्षक ही भक्षक है , जन समूह पहचान गया ।

अब मैं नयी पीढी को बोलता हूँ ॥

ऐ नन्हें वीरो तुम राही हो पथरीले राहों के ,
संभल संभल के चलते जाना , भड़कीले अंगारों पे ।
अरे देश के नवदीपक तुम बुझे बुझे से मत रहना ,
एक एक मिलकर रहना , इस धरती का हो तुम गहना ।
मुझे यकीं तुम आज के नेता कि पहचान बदल दोगे ,
धरती माँ के घावों मे प्रगति का मरहम भर दोगे ।
मैं एक छोटा सा कवि हूँ उत्साह बढ़ाने आया हूँ ,

भारत कैसे है महान बस यही बताने आया हूँ ।

3- कैसा भारत देश यहाँ पर , मानव भूखा सोता है ,
एक रोटी की खातिर बच्चा , आंसू से मुंह धोता है ।
कहीं पड़े है सेठ लखपती कहीं हाल ये होता है ,
इस अन्तर को देख मेरा मन सिसकी लेकर रोता है ।
हे प्रभु मुझको दो सद्बुद्धि , मैं जो कुछ बन जाऊंगा ,
मैं जो भी कुछ पाउँगा , मानवता को दे जाऊंगा ।
हर बन्दे को पाठ प्रेम का सिखा पढ़ा कर जाऊंगा ,
अंहकार हरना मेरा , मैं सेवा करता जाऊंगा ॥

याद मुझे है मैं बापू के अरमानों का सपना हूँ ,
भ्रष्ट नीच गद्दार नहीं भारत माँ तेरा अपना हूँ ।
तू मुझको आदेश करे मैं जीवन भी दे जाउंगा ,
आने वाली पीढी को मैं यही बात सिखालाऊंगा ।
हे भारत वीरो मत डरना इसे बलिदानों से तुम,
जीने की तमन्ना दिल मैं है तो पहले मरना सीखो तुम ।
हिम्मत व्यर्थ नही जायेगी , नई क्रांति आ जायेगी ,
भारत माँ , इसे वीरो पर गर्वित हो मुस्कायेगी ।
नई क्रांति की वीरो चिंगारी को देने आया हूँ ,

भारत कैसे है महान बस यही बताने आया हूँ ।

ये पंक्तियाँ मैंने उन माताओं के लिए लिखी है जो गर्भावस्था के दौरान अल्ट्रा साउंड से जांच कराती है ..और यदि उन्हें ये पता चलता है , गर्भ मे लडकी है , वो गर्भ पात करा देती है ॥


4- लक्ष्मी बाई की गाथा झाँसी मे गाई जाती है ,
वीर शिवाजी की माता , जिजाबाई कहलाती है ।
सीता भी तो नारी थी क्यो देवी मानी जाती है ,
माँ तू भी एक नारी है , फिर भी न तू शर्माती है ।
पुत्र ही कुल का दीपक कथनी , कैसे सच हो सकती है,
पुत्र तेरे जो कर सकते है , पुत्री भी कर सकती है ।
त्याग हमेशा करती नारी , समझ मुझे जब आती है ,
मेरे अंतर्मन की पीड़ा , रो रो कर चिल्लाती है ॥


माँ धरती पर आ चुकी है ...क्योकि उसकी माँ ने उसे नही मारा .....!!

धरती पर तू आ बैठी , क्यो घ्रणित कृत्य कर जायेगी ,
पुत्री नही रहेगी फिर धरती सूनी हो जायेगी ।

(अब नन्ही बच्ची माँ से प्रार्थना करती है )

करे प्रार्थना मारो मत माँ, मैं धरती पर आउंगी ,
हत्यारी मत बन मेरी , मैं भी तेरा वंश चलाउंगी ।
कैसे कैसे मैं समझाऊं अपने देश की नारी को ,
गर्भ मे ही पुत्री मरवा दे उस माँ अत्याचारी को ।
पुत्री पुत्र एक समझोगे तो कुछ प्रगति हमारी हो ,

एक पुत्री भी बचा सके कविता तेरी सफल तिवारी हो ।
हत्यारी माताओं को कुछ शिक्षा देने आया हूँ ,


भारत कैसे है महान बस यही बताने आया हूँ ।

-----श्रेय तिवारी , मुम्बई

Monday, May 19, 2008

तुम महान हो ...!!

गाजियाबाद की बात है, मैं शौपिंग करके साइकिल रिक्शे से घर लौट रहा था, बहुत गरमी पड़ रही थी । रिक्शे वाले ने एक जगह प्रोविसन स्टोर पर रिक्शा रोका और मुझे बोला " साब एक मिनट मे आया , जब वो लौटा तो उसके हाथ मे एक बिस्कुट का पैकेट था, उसने मुझे बताया की आज उसके बच्चे का जन्म दिन है और वो ये बिस्कुट का पैकेट अपने बच्चे को उपहार मे भेंट करेगा । मेरी अन्तरआत्मा रो पड़ी और टैब मेने ये रचना लिखी।

हे सहन शील , हे अडिग शिखर ,
तुम शांत शांत अविलम्ब चले ।
हो शीत ग्रीष्म , तुम सजग निडर ,
मंजिल पहुँचाने कदम बढे ॥

कंचित काया , मुख कांतिहीन ,
नैनों से झलके बुझे बुझे ।
तुम हो महान हे दलित दीन,
तेरी जीवन गाथा कौन सुने ॥

मन मे बेचैनी , और चिंतन ,
है जन्म दिवस , उसके शिशु का ।
कर डाला प्रस्तुत श्रम और तन ,
उपहार खरीदेगा जिसका ॥

मुझे छोड़ राह मे निकल गया ,
बिस्किट के दो पैकेट लाया ।
फिर छोड़ श्वांस निश्चिंत हुआ ,
मुख पर आनंद उमड़ आया ॥

(अब मैं लोगों से कहता हूँ )

ऐ मेरे देश की धरती माँ ,
तुझे शर्म क्यों नही आती है ।
धनी सेठ घर जलती शम्मा ,
निर्धन घर रात सताती है ॥

किस किस से मैं करूँ निवेदन ,
दया नही , तन मन धन से सहयोग करे ।
प्रभु मुझे सिखा दो धन अर्जन ,
जिसका निर्धन उपयोग करें ॥
-------श्रेय तिवारी , मुम्बई

गंदी राजनीती....!!

हो चली है अति घिनौनी राष्ट्र की ये राजनीती ,
रो रही जनता यहाँ , किसको सुनाये आप बीती ।
हाल क्या है देश का , सब जानते है राज नेता ,
देखता है सामने पर आँख अपनी मूँद लेता ॥

वो भला भी क्या ग़लत है , जीत के आया यहाँ ,
अभी उसे तो देखना है , धांधली माया कहाँ ।
धांधली उद्देश्य इनका , धांधली आदर्श है ,
भुकमरी, बेरोज़गारी मे ये भारतवर्ष है ॥

अरे क्या फर्क पड़ता है , इनके घर दिए है जल रहे ,
और यहाँ नवजात बच्चे भूख मे है पल रहे ।
क्या यही बच्चे करेंगे राष्ट्र के निर्माण को ,
जो बेचारे जूझते है पेट को और प्राण को ॥

बस यहाँ पर 'डार्विन सिद्धांत' ही चल पा रहा है ,
शक्तिशाली ही यहाँ दो वक्त रोटी खा रहा है ।
शक्ति क्या है देखना है , शक्ति कहते है किसे ?
है वो शारीरिक कहीं , पर है कहीं मस्तिष्क से ॥

जो नही दोनों कहीं , वो शक्ति है हथियार से ,
छीनता है हक यहाँ पर , लड़ झगड़ कर वार से ।
क्या ग़लत है वो बेचारा , प्रकृति का सिद्धांत है ,
जीता है मर -मार कर तब भूख करता शांत है ॥

बढ़ रहे अपराध , तो फिर कौन है दोषी यहाँ ,
कौन है खूनी , दरिंदा , कौन है वहशी यहाँ ।
जानते है सब इसे , पर कौन बदलेगा उसे ,
देश जब अपना क्या कोई और बदलेगा इसे ॥

तो जगाओ आज इस सोये हुए परिवेश को ,
और चुनो उनको जो समझे राज को और देश को ।
देश भी है घर तुम्हारा घर को ही भरते चलो ,
और घर चलते जिस तरह , तुम राष्ट्र को भी ले चलो ॥


----श्रेय तिवारी , मुम्बई

हुस्न-ऐ-परी....!!

सन् १९९८-९९ की बात है , जब मै चार्टर्ड एकाउंटेंट कोर्स की तैयारी कर रहा था । मै जिस सीऐ के ऑफिस मै आर्टिकलशिप कर रहा था , उस ऑफिस मै गुलनाज़ नाम की एक लड़की काम करती थी। वो बहुत ही खूबसूरत थी । मैं जब भी उसे देखता तो देखता ही रह जाता था । मैंने ये श्रृंगार गीत उसके लिए ही लिखा था ।

जब से देखी थी मैंने वो हुस्ने - परी ,
गुल कहूँ उसको या बोलू खिलती कली ।

1- मैं कभी वैसे ख्वाबो मै चलता नही ,
अब चला पर झलक वो मिली ही नही ।
दिल चुराया था मेरा क्या मुस्कान थी ,
मेरे पतझड़ मै सावन सा आया कहीं ।

जब से देखी थी मैंने वो हुस्ने - परी ,

गुल कहूँ उसको या बोलू खिलती कली ।

2- माना मैं खामियों का खजाना सही ।
देखा तुझको पर आइना देखा नही ।
हो चला मैं दीवाना , तेरे हुस्न का ।
तूने मुझको कभी क्यो निहारा नही ।

जब से देखी थी मैंने वो हुस्ने - परी ,

गुल कहूँ उसको या बोलू खिलती कली ।

3- मैंने मय को कभी भी चखा ही नहीं ।
पर तुझे देखकर क्यो शराबी बना ।

क्या करूँ मेरी गोरी तू गोरी सही ।
दिल है मुझमे भी चाहे मैं काला सही ।

जब से देखी थी मैंने वो हुस्ने - परी ,

गुल कहूँ उसको या बोलू खिलती कली ।

4- ना करे तू मोहब्बत तो ना ही सही ।
मैं ना भाया तुझे, कोई शिकवा नही ।
गर गया मैं जो जन्नत तो मांगू यही ।
ऐ खुदा मैं भी बन जाऊं उस सा हसीं ।

जब से देखी थी मैंने वो हुस्ने - परी ,

गुल कहूँ उसको या बोलू खिलती कली ।

--------श्रेय तिवारी , मुम्बई

Sunday, May 18, 2008

ये उसके लिए ...!!

मैं चाहता हूँ उनसे नजदीकियां बढ़ाना ,
दिल मुस्कुरा के लूटे , चाहे ना पास आना ।


1- पहली नज़र मे ही वो चुरा ले गई दिल को ,
नाम लिया बस उसका साँझ , सवेरे दिन को ,
जब भी नज़र मिलाई, गालों पे सुर्खियाँ थी,
शरमाई कुछ लजाई नैनो की पुतलियाँ थी ,


मिलने को कैसे बोलूं , क्या मे करूँ बहाना .
मैं चाहता हूँ उनसे नजदीकियां बढ़ाना ,


2- काली घटा का काजल नैनो मै है लगाती,
सावन के मेघ को वो केशों से है बहाती..,
दांतोंसे तब दबाये , चुन्नी का एक टुकडा ,
शर्मा के वो छुपाये चन्दा के जैसा मुखड़ा ,


कैसे उसे मना लूँ , आता नही रिझाना..,
मैं चाहता हूँ उनसे नजदीकियां बढ़ाना ,


3- सूखा है रेत मन का , नदिया जरा बहा दो,
सूना पड़ा बगीचा , कलियाँ भी अब खिला दो .
मरता हूँ मैं तो उसकी , नाज़ुक सी सादगी पे ,
मांगू मैं बस खुदा से , आए वो जिंदगी मै ।


प्रभु प्रार्थना है मेरी , संजोग कुछ बनाना ,
मैं चाहता हूँ उनसे नजदीकियां बढ़ाना ,

दिल मुस्कुरा के लूटे , चाहे ना पास आना ।

----श्रेय तिवारी, मुम्बई

आचरण सुधारिए !!

इस तरह भाषणों से न हमको हिला..,
तेरी करतूतें सारी हमे है पता ….....!
गंदगी खत्म करने को मै हूँ चला...,
और ज्यादा मेरी माँ को अब ना सता..!!

1- जशने आज़ादी का तू मनाता रहा ..,
उन शहीदों को माला चढाता रहा ..!!
जिंदा होते तो मालाएं ठुकराते वो ..,
आत्माए दुखी उनमें जलवा भरा …!!

इस तरह भाषणों से न हमको हिला॥,
तेरी करतूतें सारी हमे है पता ….....!

2- चाहे स्वाधीनता का दिवस तू मना ,
चाहे गणतंत्र दिवस या जयंती मना …!!
जब तलक आचरण ना सुधारोगे तो ..,
इन जलसों सभाओं ने क्या है किया ..!!

इस तरह भाषणों से न हमको हिला॥,

तेरी करतूतें सारी हमे है पता ….....!

3- ऐ मेरी माँ मै तेरा भगत सिंह बनूँ ...,
दे तू आशीष मै चन्द्रशेखर बनूँ …....!!
नष्ट कर दूंगा भ्रष्टों के व्यक्तित्व को …,
तू मुझे बोस जैसा बहादुर बना....!!

इस तरह भाषणों से न हमको हिला॥,
तेरी करतूतें सारी हमे है पता ….....!

4- मेरे भारत के नेताओ मान जाओ अब ,
अपने भ्रष्ट आचरण से तो बाज़ आओ अब..!!
मुझमे बारूद है तुम दिखाओ न लौ....,

कहीं मानव बमों जैसा फट जाऊं ना …!!

इस तरह भाषणों से न हमको हिला॥,
तेरी करतूतें सारी हमे है पता ….....!
गंदगी खत्म करने को मै हूँ चला...,
और ज्यादा मेरी माँ को अब ना सता॥!!

------------श्रेय तिवारी
(ब्रांच हेड ), कोम्पेयर इन्फोबेस लिमिटेड
२१८, महेंदर चेम्बर्स, ड्यूक्स फैक्ट्री के सामने ,
चेम्बूर , मुम्बई - ७१ , महाराष्ट्र

Friday, May 16, 2008

कहाँ हो तुम !!

मैं जिनकी याद मे रोता हूँ ...,
वो अब मुस्कुराते है .......!!
दिये जलते है , उनके घर ...,
अंधेरे हमको भाते है ......!!


१- सितारे आसमाँ मे देख कर ही रात काटी है ....,
मेरी तनहाइयों ने ही मुसीबत साथ बांटी है .........!
है पत्थर दिल सनम , वो मोम दिल बन जायेगे कैसे,
अरे ओह बेवफा, दिल को बता समझायेंगे कैसे ....!!


आँख झपकी जो एक पल भी , उन्ही के ख्वाब आते है .!
मैं जिनकी याद मे रोता हूँ , वो अब मुस्कुराते है ......!!!


२- उन्हें जिस राह पर मैं देखता हूँ , मुँह छिपाता हूँ ...,
तेरे सुख चैन को अपनी नज़र से मैं बचाता हूँ .....!!
सलामत तू रहे , घर वार तेरा सुखमयी होवे .....,
ऐ प्रभु मेरे न उसकी आँख मे आंसू कभी होवे ....!!


सितम कितने किए तुने , रहम हम फिर भी खाते है ...!
मैं जिनकी याद मे रोता हूँ , वो अब मुस्कुराते है ......!!!
दिये जलते है उनके घर, अंधेरे हमको भाते है ......!!

-------श्रेय तिवारी , मुम्बई

Thursday, May 15, 2008

जयपुर बोम्ब ब्लास्ट !!

अभी अभी जयपुर मे बोम्ब ब्लास्ट हुआ .., मैंने कुछ लोगों के पोस्ट्स पढी . मैं थोड़ा लेट हो गया , लेकिन मैंने भी कुछ लिखने की कोशिश की है . यदि आप लोगो को पसंद आता है तो कमेंट्स के रूप मे मैं आपका समर्थन चाहूँगा।

आज तुम्हे मैं सच्ची बात बताता हूँ ..,
आतंकी का चेहरा भी दिखलाता हूँ …..!
आतंकी वो नहीं जो पाकिस्तानी है…..,
आतंकी संसद के हिन्दुस्तानी है …….!!


1- हम तो बंगलादेश को ट्रेन चलाते है,
गद्दारों को प्रेम का पाठ पढाते है …....!
ट्रेन चलाकर मेरा भारत अकडा है …...,
फिर जयपुर मे बंगलादेशी पकड़ा है...!! (जयपुर ब्लास्ट इन्वेस्टिगेशन)


सच मे ये विस्फोटों के आरोपी है …...,
आस्तीन के सांप है , ये ही दोषी है ….!
क्या है मेरे देश की अब ये मजबूरी....,
वोट का लालच देता है सब मंजूरी …।!!

२-अब क्यो कोई भारत की सीमा पार करे,
क्यो कोई घुसपैठी बन कर वार करे …!
भारत ने दे दी है सारी सुविधाएं .......…,
ट्रेन मे बैठे , जब दिल हो दिल्ली आए...!!
जब दिल हो वो खूब आतंक मचाएंगे....,
भरे शहर मे मौत का नाच नाचायेंगे.....!
मेरे यारो समझो , दोषी कौन यहाँ .........,
जनता का ही लहू बहाता कौन यहाँ ....!!

३-ये क्या समझें रामराज आदर्शों को....,
ये क्या समझें रिश्ते नाते मर्मों को.......!
माँ को बेचेंगे फिर नोट कमाएँगे...........,
देश की किसको फिक्र ये वोट बढायेंगे...!!

क्या है मेरे संविधान की मजबूरी .........,
क्यों आतंकी नहीं चढाये जाते सूली.....!!
जेलों मे बैठा कर खूब खिलाते है...........,
ज़हरीले सांपों को दूध पिलाते है …......!!

४-क्यो हम जान के बदले जान नहीं लेते...,
क्यो ऐसी धाराएं बना नहीं देते ........…...!
तड़पने वाली कुछ मौत बना डालो..........,
और सभी को ऐसी मौत सुना डालो …...!!
लेकिन हम तो समझौता करने वाले.......,
गांधीवादी पक्के है हम दिलवाले............!!
फिर भी हम तो वार्ताएं ही करते है .......,

फिर दुश्मन से हाथ मिलाकर मरते है ....!

क्यों mai इनके आगे बीन बजाता हूँ........,

आज तुम्हे मैं सच्ची बात बताता हूँ ..,

आतंकी का चेहरा भी दिखलाता हूँ …॥!

--------------------------श्रेय तिवारी , मुम्बई

मेरा झारखंड दौरा......!!

एक बार मैं झारखण्ड राज्य के एक गाँव मे गया, वहां एक आदिवासी परिवार मे मैंने एक बहुत ही दर्दनाक द्रश्य देखा..... वो क्या था, आप इस कविता को ध्यान पूर्वक पढिये और जानिए, इस महान भारत मे अभी ऐसा भी होता है ..........!!

क्रांति लाना चाहता सोये हुए परिवेश मे.......,
क्यो बिलखते भूख से बच्चे हमारे देश मे ..! !

१- हाथ फैलाते बेचारे पेट की खातिर यहाँ ......,
हे प्रभु तू बोल इनके भाग्य की रेखा कहाँ ...! !
मुंह भिगोते आँसुओ से क्या ये इनका भाग है ...,
है सुबकते , पेट मे बस भूख की ही आग है ....! !

२-द्रश्य देखा एक मैंने झारखण्ड के गाँव मे ....,
भुखमरी सी थी वहां पूरे के पूरे गाँव मे ........! !
एक था परिवार जिसमे तीन बच्चे थे खड़े .....,
मांग थी रोटी की केवल , मांग पर थे वो अडे ॥! !

३-माँ ने नन्हें तीन को भट्टी की दारू दी पिला ...,
और उनके पास जाकर , देखा थोड़ा सा हिला ...! !
सो रहे थे मस्त तीनो , माँ ने लम्बी साँस ली ...,
और मैंने माँ की दुविधा दो मिनट मे भांप ली ॥॥!

४-दुग्ध स्तन मे न था , तन था बड़ा बीमार सा.... ,
घर मे न दाना अन्न का , न और कुछ आहार था ...! !
भूख की खातिर बेचारे माँ से कुछ भी मांगते ......,
माँ बड़ी लाचार , सुबहो शाम , सोते जागते .........! !

५-कुछ पलों के चैन को , दारू पिलानी ठीक थी ...,
पीकर लुढ़कते देखकर उसको बड़ी तकलीफ थी ....! !
सोचती थी भाग मेरा क्या प्रभु ने लिख दिया .......,
दो सज़ा मुझको , मेरे बच्चों को मैंने विष दिया ...! !
पर प्रभु बच्चे मेरे , शायद तेरे ही लाल है ,
तू ही पालनहार है , हम भी बड़े कंगाल है ........! !

६-हे प्रभु दे दो सहारा , मैं सम्हालूँगा उन्हें......... ,
है वो जो असहाय , खाने को नही मिलता जिन्हें ....! !
मैं नही पर्याप्त इस जग को सहारा दे सकूं ........,
पर मैं करूँ उतना , मेरी औकात से मैं कर सकूं... ! !

७-आज हम सब ले शपथ , कुछ तो करे इनके लिए... ,
तन से , धन से और मन से जुट पड़े उनके लिए ...! !
और इस तरह ही राष्ट्र की सूरत बदलनी चाहिए .....,
शायद मेरे इस देश को दस -बीस गाँधी चाहिए ....! !!

----श्रेय तिवारी

Thursday, May 1, 2008

बेटियाँ !!

जब सुना की रिश्ता हो गया है मेरी बहिना का ,
खुश हुआ मैं यूं की मेरी सूनी आँख रो पड़ी ....!!
याद आ रहा था मुझको क्या हमारा बचपना था,
होली खेली साथ और दीवाली छोड़ी फुलझड़ी...!!
१- काश लौट आए दिन वो बचपने के खेल के ,
कि मेरी बेईमानियों पे रूठती थी तू बड़ी......!!
और मैं मनाता था तुझे कर दे न शिकायत मेरी,
पर तू शिकायत करके ही खुश होती थी बड़ी बड़ी॥!!
जब सुना की रिश्ता हो गया है मेरी बहिना का ,
खुश हुआ मैं यूं की मेरी सूनी आँख रो पड़ी ....!!
याद आ रहा था मुझको क्या हमारा बचपना था,
होली खेली साथ और दीवाली छोड़ी फुलझड़ी...!!
२- हे प्रभु ये बेटियाँ पराया धन बनी है क्यों ?
जो जन्म से पिता के घर मे शान से पली बढ़ी !!
और आज जबकि भाइयों के प्यार मे है लड़-चढी,
तो जन्म ले के दूसरा , वो दुसरे के घर चली ॥!!
जब सुना की रिश्ता हो गया है मेरी बहिना का ,
खुश हुआ मैं यूं की मेरी सूनी आँख रो पड़ी ....!!
याद आ रहा था मुझको क्या हमारा बचपना था,
होली खेली साथ और दीवाली छोड़ी फुलझड़ी...!!
३- एक छींट भी कभी न आए तेरी आन पे ,
कि भाई है वही कि जो लगा दे जान की बलि !!
और राखी कि पवित्रता का मान रखूं शान से,
कि मेरे सुख भी तेरी झोलियों मी जायें हर घड़ी !!
जब सुना की रिश्ता हो गया है मेरी बहिना का ,
खुश हुआ मैं यूं की मेरी सूनी आँख रो पड़ी ....!!
याद आ रहा था मुझको क्या हमारा बचपना था,
होली खेली साथ और दीवाली छोड़ी फुलझड़ी...!!

Dirty Politics !!

Ho chali hai ati ghinauni rashtra ki ye rajneeti,
Ro rahi janata yahan, kisko sunaye aap beeti..!!
Haal kya hai desh ka, sab jaante hai raaj neta,
Dekhta hai saamne per aankh apni moond leta..!

Vo bhala bhi kya galat hai, jeet ke aaya yahan,
Abhi use to dekhna hai, dhandhli maaya kahan..!!
Dhandhli uddeshya enka, dhandhli aadarsh hai,
Bhukmari, berozgari mai ye Bharatvarsh hai.....!!

Are kya fark padta hai, enke ghar diye hai jal rahe,
Aur yahan navjaat bachche bhukh mai hai pal rahe..!
Kya yahi bachche karenge rashtra ke nirmaan ko,
Jo bechare jujhate hai pet ko aur praan ko...........!!

Bas yahan per DARVIN siddhant (Servival of the Fittest) hi chal paa raha hai,
Shaktishali hi yahan do vakt roti kha raha hai.......!!
Shakti kya hai dekhna hai, shakti kahte hai kise?
Hai vo shareerik (physical) kahin, per hai kahin mastishk (mind) se....!!

Jo nahi dono kahin, vo shakti hai hathiyaar se,
Chhinta hai haq yahan per, lad jhagad kar waar se..!!
Kya galat hai vo bechara, prakrati (nature) ka siddhant hai,
Jeeta hai mar-maar kar tab bhukh karta shant hai.....!!

Badh rahe apraadh, to phir kaun hai doshi yahan,
Kaun hai khooni, darinda, kaun hai vahshi yahan...!
Jaante hai sab ese, per kaun badlega use,
Desh jab apna kya koi aur badlega ese...!!

To jagao aaj es soye hue parivesh ko,
Aur chuno unko jo samjhe raaj ko aur desh ko...!
Desh bhi hai ghar tumhara ghar ko hi bharte chalo,
Aur ghar chalate jis tarah, tum rashtra ko bhi le chalo....!!


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----------------------------SHREYA TIWARI