Wednesday, May 28, 2008

ओ मेरी माँ...!!

दोस्तो , १० जनवरी को मैं जैसे ही दिल्ली एअरपोर्ट पर लैंड हुआ, मैंने वही नजदीक मे एक बहुत ही दर्द विदारक द्रश्य देखा । एक दुबली पतली औरत कोयले के पत्थरों को हथोडे के प्रहार से छोटा छोटा कर रही थी । उस समय दिल्ली का तापमान ४ से ५ डिग्री रहा होगा । उसका ५-६ महीने का बच्चा वही जमीन पर टाट (बोरी) के टुकडे मे लिपटा हुआ था । ये देखकर मैं सारी रात चैन से नही सोया, और उसी वक्त मैंने ये रचना लिखी ।

ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,
देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे ।

ऐ प्रकृति क्या तुझे सूझी , ये कैसा शीत लायी है ,
ये माँ नवजात शिशु को अंग से यूं भींच लायी है ।
है धोती एक मैली सी , जिसे तन पर सजाया है ,
उसी का एक पल्लू ही , तेरे मुन्ने पे छाया है ।
चले जब शीत लहरें तो , रक्त होता गरम तेरा ,
तेरा शिशु कांपकर चिपके , कौन समझे मर्म तेरा ।

तेरा तो है विधाता ही , ये दोनों ही जहाँ तेरे ,
ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,
देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे।

अभी दिल्ली मे देखा था तुझे , तू काम करती थी ,
तू पत्थर तोड़ती थी , फिर किसी गड्ढे मे भरती थी ।
वही नजदीक ही बच्चा तेरा बोरे मे लिपटा था ,
बड़ा ही शांत था , वो मौन था , चुपके से लेटा था।
वो शायद देखता था , माँ तेरे बलिदान की सीमा ,
वो देगा सुख तुझे सारे , बनेगा तेरा आइना ।

वो ख़ुद को भूलकर , अहसास करता कष्ट सब तेरे,
ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,
देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे ।

कि अब मैं सोचता हक़ क्या मेरे कपडे पहनने का ,

ये सारे सूट और स्वेटर नए , नित ही बदलने का ।

ये कैसी भूल है मेरी , मैं उनको भूल जाता हूँ ,

मैं मेरे देशवासी से क्यों इतना दूर जाता हूँ ।

आज से मैं भी उतने वस्त्र ही पहनूँगा जीवन मे,

अगर पहना नहीं सकता मैं कुछ निर्वस्त्र के तन पे ।

ये झूठी शान पर अब से नहीं अधिकार कुछ मेरे ,

ये भारत माँ अभी निर्वस्त्र है , कपड़े कहाँ तेरे ,

देखकर कांप उठता तन , अश्रु बहते है अब मेरे ।

------श्रेय तिवारी , मुम्बई

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