मैंने ये द्रश्य मुम्बई के एक उपनगरीय स्टेशन पर देखा था , और उसी दिन मैंने ये रचना लिखी थी ।
क्यों मेरे भारत का वासी करुण कराहें लेता है ,
यहाँ का बचपन , बचपन मे ही अन्तिम सांसे लेता है ।
स्टेशन पर खड़ा प्रतीक्षा करता था मैं गाड़ी की,
“पोलिश ” की आवाज़ सुनी जब दस वर्षीय अनाडी की ।
हाथ मे था गन्दा थैला , और थामी थी घर की कमान ,
कपडे थे कुछ फटे हुए , पर आंखों मे था स्वाभिमान !!
कहता पोलिश दो रुपया , करवाले बाबू, क्या कर दूँ ?
दो रुपया मे तेरे जूते शीशे जैसे चमका दूँ ।
सुबह का टाइम है बाबू कोई बोनी मेरी करवा दे ,
क्रीम लगाकर चमका दूंगा , दो रुपया मे करवा ले ।
झिटक रहे थे लोग उसे , पर उसमे था विश्वास बड़ा ,
हर व्यक्ति से करे प्रार्थना , हो करके नजदीक खड़ा !
तभी एक बाबूजी बोले , चल मेरे जूते कर दे !
ट्रेन का आने का टाइम है , झट से चमका कर दे दे।
बच्चे का मुख चमक उठा , सोचा मेरी बोहनी होगी ,
सोचे चालीस रूपये को अब बीस मुझे करनी होगी ।
(उसने पूरे दिन के लिए ४० रुपये कमाने का लक्ष्य बनाया है )
जैसे ही जूते चमका , बाबू के पांवों मे डाले ,
ट्रेन खड़ी थी बाबूजी तो ट्रेन के अन्दर को भागे ।
गाड़ी मे से बोले छुट्टे आज नही है पास मेरे ,
कातर नैना बच्चे के थे देख रहे थे आस भरे ।
(अब देखिये मैंने उस आदमी को क्या बोला)
अरे भले मानुष ट्रेनों मे पाँच मिनट का अन्तर है ,
भारत के इंसानों का तो दिल भी बड़ा समुन्दर है ।
दो रूपया बच्चे के मारे , दो रूपया औकात तेरी ,
बच्चा बोले अभिशापों मे लेता जा सौगात मेरी ।
(अब बच्चे के मन के भाव देखिये । मैंने पूरी कविता की जान इन दो पंक्तियों मे डालने की कोशिश की है )
बच्चा सोचे चालीस मे से दो रुपया है दान किए ,
अड़तीस तो फिर भी मेरे है प्रभु ने जब दो हाथ दिए ।
-----श्रेय तिवारी
मोबाइल - 9833515147
Monday, May 26, 2008
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