पूज्य पिताजी दुखी हुआ हूँ , इस एकाकी जीवन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।
१- छोड़ के अपना शहर अलीगढ, एक कमरे में बैठा हूँ ,
कब पीछा छूटेगा अपना, सोच के ख़ुद से रूठा हूँ ।
अरे पिताजी कब तक धोने कपडे 'श्रेय तिवारी' को ,
लंच डिनर भी स्वयं बनाना दूर करो बीमारी को ।
माताजी तुम भी समझाना कैसे भी अपने ढंग से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।
२- कितने पापड़ बेल के भागा, फुलझडियों के पीछे ,
गाली सुन - सुन आँखे झुक जाती है शर्म से नीचे ।
वैसे तो सुरबाला मैंने करी पसंद अनेक ,
पर प्रस्ताव के रखते ही , कहती आईना देख ।
इस बेटे का दर्द समझना , दूखी है वीराने- पन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।
३- एक से दो भी हो सकते है , आप अगर आदेश करें ,
मुश्किल से एक की है राज़ी , आप अगर ना क्लेश करें ।
'पहले लक्ष्य को प्राप्त करो' उपदेश है पिता तुम्हारा ,
सी ऐ , की है क्या गारंटी , कब तक रहूँ कुंवारा ।
तब तक ठंडा हो लूँगा , अपने जोशीले जीवन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।
-----श्रेय तिवारी , मुंबई