Saturday, August 30, 2008

मेरा एकाकीपन ...!!

प्यारे दोस्तों ,
मै १९९८ में जब 'सी ऐ ' कोर्स की तैयारी कर रहा था, तब में दिल्ली में रहता था । उस वक्त मैंने ये कविता लिखी थी । ये मैंने मेरे पिताश्री को एक पत्र लिखा है , जिसे मै आज आपके समक्ष कविता के रूप में प्रस्तुत कर रहा हूँ ।

पूज्य पिताजी दुखी हुआ हूँ , इस एकाकी जीवन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

१- छोड़ के अपना शहर अलीगढ, एक कमरे में बैठा हूँ ,
कब पीछा छूटेगा अपना, सोच के ख़ुद से रूठा हूँ ।
अरे पिताजी कब तक धोने कपडे 'श्रेय तिवारी' को ,
लंच डिनर भी स्वयं बनाना दूर करो बीमारी को ।

माताजी तुम भी समझाना कैसे भी अपने ढंग से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

२- कितने पापड़ बेल के भागा, फुलझडियों के पीछे ,
गाली सुन - सुन आँखे झुक जाती है शर्म से नीचे ।
वैसे तो सुरबाला मैंने करी पसंद अनेक ,
पर प्रस्ताव के रखते ही , कहती आईना देख ।

इस बेटे का दर्द समझना , दूखी है वीराने- पन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

३- एक से दो भी हो सकते है , आप अगर आदेश करें ,
मुश्किल से एक की है राज़ी , आप अगर ना क्लेश करें ।
'पहले लक्ष्य को प्राप्त करो' उपदेश है पिता तुम्हारा ,
सी ऐ , की है क्या गारंटी , कब तक रहूँ कुंवारा ।

तब तक ठंडा हो लूँगा , अपने जोशीले जीवन से ,
ऊपर सी ऐ गले पडी है , सच कहता भारी मन से ।

-----श्रेय तिवारी , मुंबई

No comments: