Sunday, June 22, 2008

ये राजनीती !

किसकी करें ये बात, किससे कहें ये बात,
गिरते इस देश को बचाने वाला कौन है ।
राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,
और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

पीडितों, गरीबों, असहाय जनता का यहाँ ,
हाल चाल लेने और देने वाला कौन है ।
जाति धर्म , क्षेत्र और भाषा के हो गए सभी,
आदमी को आदमी बनाने वाला कौन है ।

राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,

और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

कैसा आया लोकतंत्र , व्यवसाय राजनीती ,
लाभ का बना ये तंत्र सेवा करे कौन है ।
भीड़ कहें भेड़ कहें , जनता को जो भी कहें,
भेड़ियों से हमको बचाने वाला कौन है ।

राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,

और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

जोड़े तोडे गठजोड , राजनीती है विचित्र मोड़,
सीधे रास्ते पे इन्हें लाने वाला कौन है ।
डरपोक बुद्धजीवी लिपटा है स्वार्थ में तो ,
कीचड में कमल खिलाने वाला कौन है ।

राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,

और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

गाँधी और नेहरू का नाम लेते भ्रष्टाचारी ,
गुमराहियों से अब बचाने वाला कौन है ।
रावणों के वंशज और जयचंदों के लाल है ये,
इनसे निजात भी दिलाने वाला कौन है ।

किसकी करें ये बात, किससे कहें ये बात,
गिरते इस देश को बचाने वाला कौन है ।
राजनीती गौण बुद्धजीवी यहाँ मौन,
और जनता बेचारी को तो सुनता ही कौन है।

----------श्रेय तिवारी , मुंबई

Tuesday, June 17, 2008

संघर्ष से सफलता तक ..

मेरे प्यारे दोस्तो ,
ये कविता मैंने उन लोगो के लिए लिखी है , जो जरा सी परेशानियों से बहुत घबरा जाते है या हतोत्साहित हो जाते है , ये कविता मैंने तब लिखी थी जब मैं मुम्बई मे संघर्ष कर रहा था । मुझे वो दिन याद आ जाते है और वो संघर्ष सच मे मृत्यु के समान ही था । पर संघर्ष कि जलन को जो लोग झेलते हुए आगे बढ़ते है , और प्रभु से कहते है , " कि आप अपना काम कीजिये, और मैं अपना काम करता रहूंगा " यकीं मानिये प्रभु भी ऐसे लोगों से परेशान होकर हार मान लेते है , और ऐसे लोग को ही सफलता मिलती है । ऐसे लोग काल की भी दिशा बदल देते है , और एक सार्वभौमिक सत्य ये भी है , जिस पर मेरा अटूट विश्वास है , कि प्रभु उसी को ज्यादा कष्ट देते है , जिससे वो ज्यादा प्यार करते है ।
मृत्यु से लड़ने चला,
तो ज़िंदगी से क्यों डरु मैं...
अश्रु पीकर जी रहा ,
संघर्ष से फिर क्यों डरु मैं ....
चल रहा एकल निरंतर,
कंटकों मे पग पड़े है ......
आहटे लगती भयंकर,
राह मे शोले पड़े है .....
तीक्ष्ण है उनकी ज़लन,
वो ज़लन ही तो काम की है ...
घट न पाए, यदि लगन ,
तो ज़िंदगी आराम की है .....
कष्टमय हो ज़िंदगी ,
तो प्रभु परीक्षा ले रहे...
हम करें बस बन्दिगी ,
दुःख पी रहे , प्रभु दे रहे ....
प्यार करते प्रभु उसी को ,
कष्ट मे जो जी रहा हो ....
मुस्कुरा कर जीना सीखो,
दुःख रहे या सुख रहा हो...
है प्रतीक्षित वो समय ,
जो चिर - प्रतीक्षित भी नही है....
हो चलेगी तब प्रलय,
क्या ये सुनिश्चित सी नही है ....
हर समय सुख को मचलना,
भी तो केवल भ्रांति है ......
काल के रुख को बदलना ,
ही प्रलय की भांति है .......
-------श्रेय तिवारी, मुम्बई