Wednesday, July 30, 2008

मेरा भारत कहाँ गया मै ढूंढ़ रहा बाज़ारों में ,

वतन बेचने वाले बैठे संसद के गलियारों में ।

१- आजादी के लिए लडाई लड़ी यहाँ धनवानों ने ,

गांधी , नेहरू , बोस बहादुर जैसे इन दीवानों ने ।

वतन हुआ आजाद आज भूखे - नंगों को सौंप दिया ,

अपने घर भरके, कटार तो जनता के ही भौक दिया।

क्या इनको है नहीं दिखायी देती देश की लाचारी ,

दीन दुखी का भोजन , शिक्षा और भयानक बीमारी ।

हम तो अपनी इनकम में से सारे टैक्स चुकाते है ,

मुद्राकोष बहुत होता , पर वो सब कुछ खा जाते है ।

क्यों भूला बैठा , क्या क्या मेरे अधिकारों में ,

वतन बेचने वाले बैठे संसद के गलियारों में ।

Tuesday, July 8, 2008

कलम को तलवार बनाओ !

अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
१- बहुत गाये है प्रणय के गीत तुमने , और अब भी मीत गाये जा रहे हो ।
प्रेयसी के अधर पुट में ही पगे क्यों , नयन नद में गहन गोते खा रहे हो ॥
जा रहे उन्माद सरिता में बहे पग , रस विहारों में बिहारी हो रहे हो ।
देव की दुनिया लिए अन्तर अभागे , तड़पते प्रिय विरह मन के हो रहे हो ॥
त्याग दो श्रृंगार के सौदे सभी यह , समय है हर अंग में अंगार भर दो ।
अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
२- डूबता जाता अरे संसार देखो , स्वार्थ की आंधी भयावह चल रही है ।
नच रही नंगी दनुजता दुष्ट दासी , मनुजता मजबूर घुट- घुट गल रही है ॥
सिसकती सीता सरीखी नारियां है , और उर्वशियाँ यहाँ सम्मान पायें ।
रम रहे है राम विचलित और आहत, रावणो का राज्य मद में बौखलायें ॥
चेतना दो चेत जाए मनुजता यह , दनुजता की स्वर्ण लंका क्षार कर दो ।
अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
३- भ्रष्टता का हो रहा तांडव अनोखा , दुराचारी दस्यु आसन चढ़ रहे है ।
कर रहे ज्यों - ज्यों अथक श्रम दीन मानव , वह अभावों बीच त्यों त्यों बढ़ रहे है ॥
भोज दुर्योधन के यहाँ ही खा रहे है , दोष भोजन का विदुर पर मढ़ रहे है ।
भूख से व्याकुल तड़पते दीन दुर्बल , वस्त्र , भोजन, कफ़न लाले पड़ रहे है ॥
भैरवी गाओ अरे कवि ! उच्च स्वर से , जाग जायें रुद्र -गण गति गीत भर दो ।
अब घिनौने गीत मत गाओ कवि , अब उठो इस कलम को तलवार कर दो ।
-------श्रेय तिवारी , मुंबई